________________
दसवाँ व्रत गाथा-२८
२०३
विषय एवं कषाय के आक्रमण के कारण आज के दिन क्षेत्र मर्यादा के बाहर से वस्तु लाने, ले जाने के विचार मुझ से हो गए हैं, कभी वाणी का व्यवहार भी मुझ से चूक गया है और काया को भी मैं नियंत्रण में नहीं रख सका हूँ। ये मुझ से मिथ्या हुआ है। इसके द्वारा मैंने मेरे व्रत को कलंकित किया है, कर्मों का बंध किया है और दुःख की परम्परा का सर्जन किया है। इस पापयुक्त मेरी आत्मा को धिक्कारता हूँ और निर्मल व्रतपालक महात्माओं के चरणों में मस्तक झुकाकर उनसे प्रार्थना करता हूँ कि आपके प्रभाव से मुझ में भी व्रतपालन का विशेष बल प्राप्त हो। इस रीति से सुविशुद्ध व्रत पालन का संकल्प करके मैं पुन: व्रत में स्थिर होता हूँ।' चित्तवृत्ति का संस्करण :
दशों दिशा में दौड़ते मन की प्रवृत्ति को सीमित करने के बाद श्रावक बाकी के व्रत ग्रहण करके अविरति से विरति में आता है । उसकी भावना तो यह ही होती है कि मैं सतत अपने व्रत की मर्यादा को और संकुचित कर, साधु की तरह कम से कम द्रव्य और क्षेत्र का उपयोग करके जीवन-निर्वाह करूँ और जल्द ही साधु की तरह सर्व संग का त्याग कर सर्वविरति स्वीकार लूँ। ऐसी भावना को सफल करने हेतु नीचे बताए विषयों पर विशेष चिंतन करना चाहिए, • पूर्व के व्रत लेकर मैंने दुनिया भर के विषयों का उपभोग करने की वृत्ति को नियंत्रित ज़रूर किया है पर अब भी मैं जो भोग-उपभोग करता हूँ वह कुसंस्कार और कर्मबंध का कारण तो हैं ही । इसलिए मुझे अपनी मर्यादाओं
का दिन-प्रतिदिन संकोच करना है । • हर एक संबंध आर्तध्यान का निमित्त बनता है, इसलिए मेरे मन को स्वस्थ रखने के लिए मुझे संबंधों को तोड़ने का प्रयास करना है । • हर रोज़ चौदह नियमों का स्वीकार करके मैंने मन की भाग-दौड़ पर थोड़ा बहुत प्रतिबंध तो लगाया है, पर अब भी घूमने-फिरने की, चीज़ों को संग्रह करने की मेरी वृत्ति मुझे अनेक पापों का भागी बना देती है । इसलिए मुझे हर रोज नए नए अभिग्रह लेकर इन मलिन वृत्तियों से छूटना है ।