Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 231
________________ २०८ वंदित्तु सूत्र तृप्ति : शरीर के प्रति राग से ही शरीर को सजाने की इच्छा होती है। इस अपेक्षा से सोचे तो राग से हई हर क्रिया सावध ही गिनी जाती है। इसलिए पौषध में सावद्य या निरवद्य दोनों प्रकार के सत्कारों का त्याग करना ही चाहिए । (३) ब्रह्मचर्य पौषध : मैथुनक्रिया का त्याग करना। मैथुन संज्ञा के अधीन होकर जीव अठारह प्रकार से मैथुन सेवन करता है। उससे क्लिष्ट कर्मों का बंध करके जीव भव परंपरा की वृद्धि करता है। मैथुन संज्ञा की पराधीनता के कारण श्रावक सदा के लिए अब्रह्म का त्याग न कर सके, तो भी पर्व दिनों में अब्रह्म का त्याग करके ब्रह्मस्वरूप आत्मभाव में रहने का जो प्रयत्न करता है उसे 'ब्रह्मचर्यपौषध' कहते हैं। (४) अव्यापार पौषध : सावध व्यापार का त्याग करना। व्यापार का अर्थ है व्यवहार। संसार का कोई भी व्यवहार सावद्य अर्थात् पापकारी ही होता है। श्रावक सदा ऐसे व्यवहारों का त्याग नहीं कर सकता, तो भी पर्व आदि दिनों में ऐसे सभी व्यापारों का त्याग करना 'अव्यापार पौषध' है। श्रावक समझता है कि कर्मकृत या कषायकृत कोई भी प्रवृत्ति आत्मा का स्वभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव तो ज्ञानादि गुणों में रमण करने का है। इसलिए ही वह पौषध व्रत ग्रहण कर संसार की सब सावध प्रवृत्तियों का त्याग करके आत्माभिमुख प्रवृत्ति में रहने का यत्न करता है। ___ अंतिम तीन पौषध भी आंशिक (देश से) और सम्पूर्ण (सर्व से) ऐसे दो प्रकार से शास्त्रों में बताएँ हैं, परंतु वर्तमान में प्रचलित पूर्वाचार्यों की परंपरा से अंतिम तीन पौषध' सम्पूर्णता से (सर्व से) करते हैं और आहार पौषध आंशिक (देश से) 6. औदारिक एवं वैक्रिय शरीर वाली स्त्रियों के साथ मन-वचन-काया से मैथुन का सेवन · करना, करवाना एवं अनुमोदन करना।। 7 आहार त्याग वगैरह चार प्रकार के देश तथा सर्व पौषध के एक संयोगी, दो संयोगी आदि कुल ८० प्रकार होते हैं। इन चारों प्रकार के पौषध में से वर्तमान काल में पूर्वाचार्यों की परंपरा से सामाचारी भेद से मात्र आहार पौषध ही देश अथवा सर्व से होता है; क्योंकि निरवद्य आहार की मनाई सामायिक में नहीं की है जब कि अगर शरीर-सत्कार-त्याग आदि तीन पौषध देश से किये जाए तो प्राय: ऐसी प्रवृत्तियाँ करते समय सामायिक के पच्चक्खाण में बाधा आती है। - धर्मसंग्रह

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