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नौवाँ व्रत गाथा-२७
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समभाव का सुख प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले श्रावक को खूब सावधान एवं जागृत होकर सामायिक करनी चाहिए।
सामाइअ वितहकए - सामायिक मिथ्या की हो।
१. मन-दुष्प्रणिधान, २. वचन-दुष्प्रणिधान, ३. काय-दुष्प्रणिधान, ४. अनवस्थान एवं ५. स्मृतिविहीनता - इन पाँच अतिचारों के सेवन के कारण सामायिक व्रत का पालन जिस प्रकार होना चाहिए उस प्रकार न हुआ हो, उसे सामायिक वितथ क्रिया कहते हैं।
पढमे सिक्खावए निंदे - प्रथम शिक्षाव्रत के विषय में लगे हुए पाप की मैं निन्दा करता हूँ।
सर्वविरति की शिक्षा के लिए स्वीकार किये हुए इस व्रत के पालन में मन, वचन, काया से कोई भी दोष लगे हों तो उनकी मैं आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ, गुरु समक्ष गर्दा करता हूँ एवं पुनः सुविशुद्ध व्रतपालन में स्थिर होने का यत्न करता हूँ।
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि - 'इस जगत में सुख एवं सुख के साधन अनेक हैं, परंतु ये सब साधन काल्पनिक और अल्पकाल के लिए भ्रामक सुख देने वाले हैं; जब कि समता का सुख स्वाधीन है, चिरकाल टिकने वाला है। वैसा सुख पाने के लिए किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे श्रेष्ठतम समता का सुख पाने के लिए मैंने अल्पकाल के लिए यह सामायिक व्रत स्वीकार किया था। इस व्रत का स्वीकार करके उसका अखंड पालन करने की मेरी तीव्र भावना थी; तो भी अनादि कुसंस्कारों एवं मन, वचन, काया की अस्थिरता के कारण मैं यह व्रत अखंडता से नहीं पाल सका और उसी कारण से मैं समता के सुख से वंचित रहा हूँ।
यह मैंने ठीक नहीं किया। मेरी यह दोषवृत्ति धिक्कारणीय है। धन्य है पुणिया श्रावक एवं सुदर्शन श्रेष्ठी जैसे महापुरुष जिन्होंने व्रत लेकर, मन को स्थिर रखकर व्रत का निर्दोष पालन किया था। ऐसे महापुरुषों के चरणों में मस्तक झुकाकर उनसे प्रार्थना करता हूँ कि आपके जैसा सत्त्व मुझ में प्रकटे जिससे मैं भी संपूर्णतया इस व्रत को अखंड पालते हुए समतासागर में तैर सकूँ ।' 4 वितथकृते सम्यग् नानुपालिते
- अर्थदीपिका