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चतुर्थ व्रत गाथा-१५
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आयरिअमप्पसत्थे इत्थ पमायप्पसंगेणं - प्रमाद के कारण अप्रशस्त भाव का उदय होने से इस चतुर्थ व्रत के विषय में दिनभर में जो कुछ भी विपरीत आचरण किया हो (उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ)।
व्रत पालने का दृढ संकल्प किया हो तो भी अनादिकाल से अभ्यस्त प्रमाद कभी सभी व्रत की मर्यादा का भंग करवा देता है एवं अप्रशस्त भाव प्रकट करता है । अभ्यस्त अप्रशस्त भावों से जिन अतिचारों का सेवन हो जाता है, उनसे बचने के लिए विशेष प्रकार से ब्रह्मचर्य के पालन से होने वाले लाभ एवं अब्रह्म से होने वाले नुकसान का विचार करके, मन को ऐसा तैयार करना चाहिए कि वो प्रमाद में पड़े ही नहीं। ब्रह्मचर्य पालन का फल और अब्रह्म से होने वाला नुकसान :
करोड़ों स्वर्णमुद्रा के दान से या सुवर्णमय जिन भवन बनवाने की अपेक्षा से निर्मल ब्रह्मचर्य के पालन में शास्त्रकारों ने ज़्यादा लाभ कहा हैं। जो ऐसे दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देवता भी नमन करते हैं।
उत्तम ठकुराई, लंबा आयुष्य, सुंदर संस्थान, सुदृढ़ संहनन, बेजोड़ धनधान्यादि ऋद्धि, राज्य, निर्मल कीर्ति, तेजस्वी इन्द्रियाँ, निर्विकारी बल, महापराक्रमी वृत्ति, स्वर्ग का सुख एवं अन्त में अल्प समय में मोक्ष, ये सब निर्मल ब्रह्मचर्य पालन से प्राप्त होते हैं।
कामांध पुरुषों को इस भव में वध, बंधन, फाँसी, नाक कटाना, गुप्तेन्द्रिय का छेद, धन का नाश आदि अनेक दुःख सहन करने पड़ते हैं और परभव में वे छेदी हुई गुप्तेन्द्रियों वाले नपुंसक, कुरूपी, दुर्भागी, रोग वाले होते हैं । उनको नरक में भी अनेक तरह के दुःसह दुःखों को भुगतना पड़ता हैं।
दुराचारिणी स्त्रियाँ अन्य भव में विधवापन, लग्न की वेदी में ही वैधव्य, वंध्यापन, मरे हुए बालक को जन्म देना, विषकन्या होना (स्पर्शमात्र से दूसरे को जहर चढ़े ऐसे शरीरवाली) वगैरह दुष्ट स्त्रीपना पाती हैं।
इन सब बातों का विचार करके साधक को प्रमाद का त्याग कर निर्मल ब्रह्मचर्य के पालन में तत्पर बनना चाहिए।