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पंचम व्रत गाथा-१७
कर्मबंध से जीव नरकादि दुर्गति का पात्र बनता है। इसलिए श्रावक सोचता है कि 'यदि मुझे ऐसी अनर्थ की परंपरा से बचना हो तो सर्वप्रथम मुझे अपने मन को संतोषी बनाना चाहिए। हृदय को इस बात से भावित करना चाहिए कि बाह्य वस्तुएँ मुझे कभी भी सुखी नहीं कर सकतीं। अत: मुझे जितना हो सके उतनी कम से कम वस्तुओं से जीवन-निर्वाह करना सीखना चाहिए एवं जीवन निर्वाह के लिए जो आवश्यक हो वैसी चीज़-वस्तुओं में भी आसक्ति न हो जाए उसकी सावधानी रखनी चाहिए।
ऐसी समझ होने पर भी श्रावक जानता है कि 'मेरा मन अति चंचल है, जो कुछ भी देखता हूँ मुझे उसे लेने का मन हो जाता है। इससे अनावश्यक संग्रह होता जाता है एवं संग्रह की हुई वस्तु के प्रति ममता भी बढ़ती जाती है। मेरी इस मलिन वृत्ति को अंकुश में लाने के लिए मुझे अवश्य इस व्रत को स्वीकार करना चाहिए।' ऐसा मानकर श्रावक इस व्रत का स्वीकार करता है।
जिज्ञासा : तनाव (टेन्शन) बिना शांति से जीवन जी सके इसलिए भी वर्तमान में बहुत से लोग कम धनादि रखते हैं, उनको परिग्रह-परिमाण-व्रतवाले कह सकते हैं कि नहीं ?
तृप्ति - शांति से जीने या तनाव मुक्त रहने के लिए जो परिमित धन-धान्यादि सामग्री रखते हैं, परंतु अंदर में पड़े हुए ममता के भावों को बाहर निकालने की जिनकी भावना नहीं होती, उनमें यह व्रत नहीं घटता। यह व्रत तो उन्हीं में घटता है जिनको ममता, असंतोष आदि दोष खटकते हैं और इन दोषों से मुक्त होने के लिए ही परिग्रह का परिमाण करते हैं । इस व्रत में धनादि की संकोचवृत्ति का महत्त्व नहीं, परंतु निर्मम भाव की पोषक संकोचवृत्ति का महत्त्व है। अतः बाह्य परिग्रह परिमाण भी आंतरिक परिग्रह को घटाने के लिए ही है।
4. अपरिग्रह एव भवेद्वस्त्राऽभरणालङ्कृतोऽपि पुमान्,ममकारविरहित: सति ममकारे सङ्गवान्
- योगशास्त्र (२-१०६) ममता बिना वस्त्र, आभरण से शोभित पुरुष भी परिग्रह रहित है, जब कि नग्न (अति दरिद्री या सर्व पदार्थों का त्यागी) होता हुआ भी ममत्ववाला हो तो परिग्रहवाला है।