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छठा व्रत गाथा-१९
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विशेषार्थ :
गमणस्स य(उ) परिमाणे - और गमनागमन के परिमाण में।
सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में छठा व्रत ‘दिग्परिमाणव्रत' है। दिग् अर्थात् दिशा और परिमाण अर्थात् माप (प्रमाण)। चार दिशा, चार विदिशा, ऊर्ध्व दिशा एवं अधो दिशा, इस प्रकार दसों दिशाओं में जाने-आने का प्रमाण निश्चित करना 'दिग्परिमाण व्रत' नामका प्रथम गुणव्रत हैं। ये तीनों व्रत प्राणातिपात विरमण आदि जो मूल व्रत हैं उनको गुण (पुष्ट) करने वाले होने से गुणव्रत कहलाते हैं।
कहते हैं कि गृहस्थ अत्यंत तपे हुए लोहे के गोले' जैसा होता है। गर्म तप्त लोहे का गोला जहाँ जाता है, जिसके पास जाता है वहाँ उसको जलाता है; उसी प्रकार आरंभ-सभारंभ में बैठा हुआ गृहस्थ जहाँ जाता है वहाँ उससे हिंसादि पाप होने की पूरी संभावना रहती हैं। अत: हिंसा आदि से बचने के लिए श्रावक दिग्परिमाण व्रत स्वीकार करता है। श्रमण भगवंत निरारंभी है, और वे कहीं भी जाएं तो जीव विराधना न हो इसकी पूर्ण सावधानी रखते हैं। इसलिए उनके लिए क्षेत्र नियम की आवश्यकता नहीं रहती।
1. फारप्फुलिंगभासुर अयगोलगसन्निहो इमो निचं।
अविरइपावो जीवो, दहइ समंता समत्थजिए।।१।। जइवि न जाइ सव्वत्थ, कोइ देहेण माणवो एत्थ। अविरइपच्चयबंधो, तहावि नियो भवे तस्स ।।२।। - धर्मसंग्रह भाग -१ पाप से विराम नहीं पाया हआ जीव, धधकते अंगारे की तरह जाज्वल्यमान गर्म लोहे के मोटे गोले जैसा होता है, वह सदा सर्वत्र सब जीवों को जलाता है। वैसे तो कोई भी मनुष्य शरीर से सर्वत्र नहीं जा सकता, तो भी अविरति के कारण उसको हमेशा तीनों लोक का (आरंभजन्य) कर्मबंध होता रहता हैं। अन्यत्र भी कहा है कि - तत्तायगोलकप्पो, पमत्तजीवोऽणिवारिअप्पसरो। सव्वत्थ किं न कुज्जा, पावं तक्कारणाणुगओ ? ||१||
-योगशास्त्र प्र. ३-२ टीका (अग्नि की भट्ठी में) तपे हुए लोहे के गोले के समान प्रमादी जीव, जिसने (दिविरमण व्रत से) गमनागमन का प्रसार नहीं रोका, वो जहाँ जाता है वहाँ सर्वत्र पाप के कारणों के मिलते रहने से कौनसा पाप नहीं करता ? अर्थात् सर्वत्र सब पाप करता हैं।