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आठवाँ व्रत गाथा-२४
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विशेषार्थ :
सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में आठवाँ और गुणव्रतों में तीसरा व्रत अनर्थ दंड' विरमण व्रत हैं। अर्थ प्रयोजन और दण्डयन्ते, व्यापद्यन्ते अनेन इति दंड अर्थात् आत्मा को जो दंड - शिक्षा करे वह दंड कहलाता हैं। उसमें विशिष्ट या अनिवार्य कारणों से जिस हिंसादि द्वारा आत्मा को दंड होता है उसे अर्थदंड कहते हैं एवं प्रयोजन के बिना आत्मा जिससे दंडित हो उसे अनर्थदंड कहते हैं, अर्थात् अपना घर, कुटुंब, परिवार, धन-संपत्ति या संसार में उपयोगी सामग्री के लिए जो हिंसादि पाप किये जाते है उन्हें अर्थदंड कहते हैं, और सांसारिक जीवन जीने के लिए जिसकी आवश्यकता नहीं है तो भी शौक, कुसंस्कारों, अज्ञानता या कर्मबहुलता के कारण जो निष्प्रयोजन पापारंभ होते हैं वे अनर्थदंड कहलाते हैं।
श्रावक समझता है कि सांसारिक जीवन जीने के लिए जो पाप करने पड़ते हैं उन पापों का फल भी भयंकर होता है, तो अनावश्यक पापों का फल तो उससे भी अधिक भयंकर होगा। तो भी अविरति के उदय के कारण या अनादि कुसंस्कारों के कारण कभी उसका मन और इन्द्रियाँ काबू में नहीं रहते, और उसके कारण उससे ऐसे अनर्थदंड के पाप भी हो जाते हैं। ऐसे पापों को नियंत्रण में लाने के लिए श्रावक अनर्थदंडविरमण व्रत स्वीकार करता हैं।
सर्वथा अनर्थदंड विरमण व्रत तो जो अपने मन, वचन, काया पर पूर्ण नियंत्रण रखकर भगवान की आज्ञा अनुसार अपने योगों का प्रवर्तन करते हैं, वे श्रमणभगवंत
1 शरीराद्यर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः। योऽनर्थदण्डस्तत्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ।।
- योगशास्त्र शरीर आदि के कारण जो पाप करना पड़े, वह अर्थदंड; जिसमें स्वयं को या अन्य को कोई लाभ न हो तथा निष्कारण आत्मा पाप से दंडित हो, वह अर्थदंड से विपरीत अनर्थदंड
कहलाता है जिसका त्याग करना तीसरा अणुव्रत हैं। 2 अद्वेण तं न बंधइ, जमणद्वेणं तु थेव बहुमाया। अढे कालाईया, नियामगा न उ अणट्ठाए।।
- धर्मसंग्रह प्रयोजन से करते हुए पाप से इतना कर्म का बंध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन किए गए पापों से होता है क्योंकि सप्रयोजन कार्य में तो निश्चित समय, निश्चित स्थल, निश्चित प्रमाण आदि नियंत्रित होते हैं जबकि निरर्थक कार्य में कोई अंकुश नहीं होता।