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छठा व्रत
अवतरणिका :
श्रावक धर्मरूपी वृक्ष के मूल समान, पाँच मूल व्रतों को बताकर अब उनकी पुष्टि करने वाले तीन गुणव्रतों को बताते हैं - गाथा : गमणस्स य(उ) परिमाणे, दिसासु उड्डे अहे अ तिरिसं च ।
वुड्डी सइ-अंतरद्धा, पढमम्मि गुणव्वए निंदे।।१९।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : उर्ध्वम् अधश्च तिर्यक् च दिक्षुगमनस्य च परिमाणे ।
वृद्धि-स्मृति-अन्तर्धा, प्रथमे गुणव्रते निन्दामि।।१९।। शब्दार्थ :
('दिग्परिमाण' नाम के) पहले गुणव्रत में उर्ध्व, अधो एवं तिर्की दिशा में जाने का परिमाण निश्चित करने के बाद उस प्रमाण की वृद्धि होने से या उसे भूल जाने से प्रथम गुणव्रत में जो अतिचार लगे हों उनकी मैं (गर्हा) करता हूँ।