________________
सातवाँ व्रत गाथा - २१
१६७
पडिकम्मे देसिअं सव्वं - दिनभर में लगे सब पापों का प्रतिक्रमण करता हूँ ।
श्रावक जिनका त्याग करता है, उन सचित्त वस्तु मात्र को ध्यान में रखकर इस गाथा में अतिचार बताए हैं, परंतु उसके उपलक्षण से अन्य भी जिन वस्तुओं का श्रावक ने त्याग किया हो अथवा जिसका प्रमाण निश्चित किया हो वैसी वस्तुओं से संबंधित अतिचारों का यथासंभव विचार कर लेना चाहिए। जैसे कि मांस, मदिरा, शहद आदि वस्तुओं का त्याग किया हो, परंतु अनाभोग से या अनजाने में उन वस्तुओं का उपयोग हो गया हो, किसी वस्तु के साथ ऐसी चीज़ें जुड़ी हों या दवा आदि में इनका उपयोग हो गया हो तो वे सभी व्रत में अतिचार स्वरूप हैं।
इसी तरह अन्य किसी भी वस्तु के त्याग या नियमन की प्रतिज्ञा की हो और दिन में उन त्याग की हुई वस्तु विषयक ऐसे छोटे बड़े किसी भी अतिचारों का जानते या अजानते सेवन हुआ हो, तो उन सब दोषों को याद करके श्रावक उनकी आलोचना, निन्दा एवं गर्हा करता हैं। ऐसा करने से वह अपने मन को इस प्रकार तैयार करता है कि पुनः पाप का आसेवन ही न हो। इस प्रकार पाप के अकरण रूप प्रतिक्रमण करने की अपनी इच्छा को साधक इस पद द्वारा प्रकट करता हैं।
इन दोनों गाथाओं का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि
-
'जड़ वस्तुओं का भोग-उपभोग करना मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा मैं जानता हूँ, फिर भी श्रमण भगवंतो की तरह भोग बिना या ज़रूरी भोग करना पड़े तब भी उनके प्रति भी निर्लेप भावयुक्त रहने का मेरा सामर्थ्य नहीं है। ऐसी शक्ति प्रकट करने के लिए मैंने भोगोपभोग परिमाण व्रत स्वीकार किया है और इस व्रत का अखंड पालन करने की भावना से यथाशक्ति प्रयत्न भी किया है, तो भी प्रमादादि दोषों के कारण तथा इच्छाओं के ऊपर अंकुश न लगा सकने के कारण दिन में अनेक बार मैंने मेरे व्रत को मलिन किया हैं। कभी खाने में, तो कभी पहनने ओढ़ने की चीज़-वस्तुओं के प्रति मेरा मन आकर्षित हुआ है, कभी वैसा बोलना-चालना भी हो गया है एवं कभी काया भी उसमें जुड़ गई हैं। इन सब अतिचारों को याद करके, उनसे भी वापस आने के लिए सर्वथा भोगोपभोग से रहित महामुनियों के चरणों में प्रणाम करता हुआ प्रार्थना करता हूँ कि 'हे भगवंत ! आपके जैसी निर्मल मनोवृत्ति एवं शक्ति मुझे भी प्राप्त हो, जिससे मैं भी निरतिचार व्रतपालन में स्थिर