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वंदित्तु सूत्र
आहारादि की प्राप्ति में भी कहीं राग-द्वेष या अच्छे-बुरे भाव को उठने नहीं देते। संयम की साधना के लिए ज़रूरी हो उतने ही वस्त्र आदि शास्त्रानुसारी विधि से ग्रहण करते हैं। ग्रहण करने के बाद उनका उपभोग भी किसी जीव को पीड़ा न हो इस रीति से करते हैं। उपभोग करते समय उनका लक्ष्य उनके संयम की साधना का रहता है, नहीं कि इन्द्रियों के आनंद का। वस्त्रादि सर्व चीजों का उपयोग भी इस तरीके से संयम साधना के लिए ही होने पर, उनकी यह प्रवृत्ति भोगरूप नहीं बनती। इस कारण से वे आहार आदि लेते हुए भी अभोगी, उपवासी कहलाते हैं।
जिज्ञासा : विषयों के भोग से दूर रहनेवाले महात्मा के सच्चे आनन्द का, सुख का विषय क्या है ?
उत्तर : श्रमण भगवंत अपने आत्मिक गुणों में रममाण रहकर आनंद प्राप्त करते है। इस तरह गुणों का भोग करना श्रमण भगवंतों के सुख का विषय हैं । यह भोग स्वाधीन है, वास्तविक सुख का प्रदाता है। उसमें स्व-पर किसी को भी पीड़ा का प्रश्न नहीं आता एवं इस भोग के आनंद का अनुभव जीव सतत कर सकता है। क्षमा, नम्रता, संतोष आदि गुणों की प्राप्ति में, वृद्धि में और उनमें लीन रहने से जिस सुख की अनुभूति होती है वह शब्दातीत हैं । वह सुख भीतर में है, किसी पर
आधारित नहीं एवं चिरस्थायी है, क्योंकि वह जीव का स्वभाव हैं । इसीलिए महात्मा बाह्य भोग की उपेक्षा कर सतत ज्ञानादि एवं समतादि गुणों के भोग के लिए प्रयत्न करते हैं । जितने अंश में इन गुणों की वृद्धि होती है उतने अंशों में उनके आनंद की मात्रा भी बढ़ती जाती हैं। उनके इस आनंद को कोई लूट नहीं सकता,कोई भी निमित्त उनके सुख को कम नहीं कर सकता। बाह्य प्रतिकूलताएँ भी उन्हें परेशान नहीं कर सकती। इस कारण से वे कहीं भी हों, कैसे भी निमित्तों के बीच रहते हों, तो भी आनंद एवं मस्ती का जीवन जीते हैं।
इसलिए ही भगवान ने आत्मिक गुणों के भोग पर कोई अंकुश नहीं लगाया; परंतु जो भोग जीव के लिए दुःखकारक है, उसी भोग का नियंत्रण करने के लिए इस व्रत का विधान किया हैं। __ श्रावक को भी साधु जैसे निर्लेपभाव वाला जीवन अत्यंत प्रिय होता है एवं उसके लिए वह सतत प्रयत्नशील भी रहता है; तो भी अभी उसमें ऐसा सत्त्व नहीं होता कि वह संयम जीवन स्वीकार कर सके। इस कारण से ऐसे जीवन का लक्ष्य