________________
१५४
वंदित्तु सूत्र
इसीलिए प्रभु ने आत्मिक आनंद के प्रति जीव का आकर्षण जगाने के लिए, साधुओं के पास आराधना पूरक साधनों के अलावा तमाम साधनों का त्याग करवाया है, जब कि संसार में रहने पर भी विषयों का रस तोड़ सकें और 'बिना खाए बिना भोगे' जो फोकट, निष्प्रयोजन कर्मबंध होता है, उससे बचने के लिए संसारियों को भोगोपभोग परिमाण व्रत बताया हैं। ___ इस उद्देश्य को सामने रखकर यथाशक्ति भोग एवं उपभोग की वस्तुओं में संख्यादि रूप प्रमाण निर्धारण करना अर्थात् भोग्य-उपभोग्य वस्तुओं की एक मर्यादा बांधते हुए, उससे अधिक न भोगने का संकल्प करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है तथा भोग-उपभोग के साधन जिनसे प्राप्त होते हैं उस धन के उपार्जन के लिए, जिसमें महारंभ-समारंभ का पाप होता है, ऐसे व्यापार धंधे करने के लोभ को नियंत्रित करने के उद्देश्य से कर्मादान के धंधे तो न ही करना ऐसा नियम लेना, वह भी भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इस प्रकार यह व्रत दो भागों में विभाजित हैं :
१) भोजन, वस्त्र, अलंकार आदि भोगोपभोग की सामग्री के नियंत्रण रूप। २) व्यापार के नियंत्रण रूप। इस व्रत को स्वीकार करने वाला श्रावक अपने निर्मल व्रत के विशुद्ध पालन के लिए भोग-उपभोग की अनर्थकारिता का सतत विचार करता है। भोग-उपभोग की दुःखकारिता :
‘भोग-उपभोग मुझे सुख देंगे' ऐसे भ्रम से प्रेरित जीव को सतत पाँचों इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने की इच्छा होती रहती है। यह इच्छा भोग सामग्री के प्राप्त होने पर भी संतुष्ट नहीं होती, परंतु अनेक नवीन इच्छाओं को जन्म देती है। पुनः इन नवीन इच्छाओं की पूर्ति के लिए जीव भूत की तरह भटकता है, परंतु उसे अपनी अनंत इच्छाओं की तृप्ति हो उतने प्रमाण में भोग सामग्रियाँ कभी नहीं मिलतीं और कभी पुण्य के सहारे थोड़ी मिल भी जाएँ तो उससे कभी भी सच्चा सुख नहीं मिलता। अतः श्रावक को सम्यग्ज्ञान के सहारे स्वयं की इच्छाओं का नियंत्रण करना चाहिए; परंतु विषयों को भोगने द्वारा इच्छाओं को पूरी करने का व्यर्थ प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसी बात को बताते हुए महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं :