________________
सातवाँ व्रत गाथा-२०
१५३
विशेषार्थ :
सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों में सातवाँ भोगोपभोग परिमाण नामका दूसरा गुणव्रत हैं। भोग का अर्थ भोगना, खुश होना, अनुभव करना इत्यादि होता है। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये जड़ पदार्थों के धर्म हैं। उन गुणधर्मों को जीव इन्द्रियों के माध्यम से जान भी सकता है और उनका आनंद भी ले सकता है। मनोज्ञ शब्दादि पाँच विषयों के साथ इन्द्रियों का संपर्क होते ही अनादि कुसंस्कारों के कारण जीव को उनमें आह्लाद होता है और ये अच्छे हैं, मुझे सुख देने वाले हैं, ऐसा ममताकृत भाव होता हैं । विषयों के संपर्क से होते हुए ये रागादि भाव ही निश्चयनय से भोग पदार्थ हैं एवं आहार, वस्त्रादि का बाहर से उपयोग करना व्यवहार से भोग पदार्थ हैं।
भोगने योग्य पदार्थ दो प्रकार के हैं। उनमें जिनका एक ही बार उपयोग हो सकता है वैसे आहार, पुष्प आदि को भोग्य पदार्थ कहते हैं, एवं जिनका बारबार उपयोग हो सके ऐसे स्त्री, घर, वस्त्र, अलंकार आदि को उपभोग्य पदार्थ कहते
हैं।
जड़ ऐसे आहार, वस्त्र, पात्र या अलंकार आदि के साथ चेतनमयी आत्मा का कोई संबंध नहीं होता। उनके भोग-उपभोग से आत्मा को कोई भी सुख नहीं मिलता। फिर भी सम्यग्ज्ञान के अभाव तथा मिथ्यात्व के गाढ़ संस्कारों के कारण जीव को 'दुःखकारक ऐसे पाँच इन्दियों के विषय सुखकारक हैं', ऐसा भ्रम होता है। इस भ्रम के कारण उसको पाँचों इन्द्रियों के विषय को प्राप्त करने की एवं भोगने की इच्छा निरंतर होती रहती है। यह इच्छा ही सर्व दुःखों का मूल हैं। भोग सामग्री प्राप्त होने पर या भोगने पर ये इच्छाएँ अल्प काल के लिए शांत हो जाती हैं। इस अल्पकालीन दुःख के शमन में यह सुख है', ऐसा भ्रम होता हैं। वास्तव में यह सुख नहीं, दुःख की अल्पता हैं। परंतु अज्ञान और मोह के कारण दुःख की इस कमी को जीव सुख मानकर पुनः पुनः उसमें प्रवृत्ति करता हैं। जिसके कारण भोग सामग्री से सुख मिलता है, ऐसा उसका भ्रम पुष्ट होता जाता हैं। इस भ्रम की वजह से जीव वास्तविक आत्मिक सुख का आनंद नहीं ले सकता। अरे ! उस तरफ उसकी नज़र भी नहीं जाती।