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छठा व्रत गाथा - १९
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• मैं अपनी मौज-मस्ती के लिए हिल स्टेशन, बाग-बगीचे, स्नो- फॉल्स, वॉटर फॉल्स जैसे प्राकृतिक सौंदर्य को देखने जाता हूँ, पर यह सब एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव की अति दयनीय परिस्थिति हैं । किसी का दुःख देखकर मुझे क्या मिलेगा ? क्या वनस्पति, पानी आदि के जीवों के दुःख में सुखी होने की अधम वृत्ति मेरे लिए शोभास्पद है ?
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• दूसरी बात यह है कि मैंने खुद भी अनेक बार इन स्थानों में जन्म लिया है । आज मुझे ऐसे स्थानों को देखने की उत्सुकता होती है, वे नवीन लगते हैं, पर ये सब स्थान मैंने भूतकाल में बहुत बार जाने हुए हैं ।
अगर मैं ऐसी इच्छा को रोकुँगा नहीं तो मुझे निरर्थक कर्मबंध होता ही रहेगा और उसकी वजह मुझे एकेन्द्रिय के रूप में या नरकादि में जन्म लेना पड़ेगा । दिन दो दिन की मेरी काल्पनिक मौज मस्ती मुझे भव भव तक मौज से दूर कर देगी ।
• प्राकृतिक सौंदर्य देखने में भी अगर इतना नुकसान है तो आज कल की होटले, देश-विदेश के सहेलगाह, Entertainment parks आदि की तो क्या बात करना ? वहाँ की विकृत चेष्टाओं से मेरे शील आदि संस्कारों का क्या होगा ?
• कई बार मैं कुतूहल वृत्ति से घूमने जाता हूँ तो कई बार ताज़गी का अनुभव करने या तो सिर्फ एक Social Status के लिए मानादि के कारण मैं देशविदेश की सैर करता हूँ, पर उससे बंधे पाप के कारण मुझे कितने दुःखों का भागी बनना पड़ेगा यह मैंने सोचा है।
• जहाँ तक में बाहर से आनंद प्राप्त करने में व्यस्त रहूँगा वहाँ तक मुझे भीतर का स्वाधीन आनंद कभी प्राप्त नहीं होगा । इसलिए तरह तरह के स्थानों के बारे में सोचकर नाहक का कर्मबंध रोकने के लिए मुझे अपनी इस मलिन वृत्ति में बदलाव लाकर आत्मा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।