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वंदित्तु सूत्र
आयरिअमप्पसत्थम्मि परिमाणपरिच्छेए, इत्थ पमाय-प्पसंगेणं - प्रमाद के प्रसंग से जब (लोभादि) अप्रशस्त भावों में प्रवर्तन हो तब इस पाँचवें अणुव्रत के विषय में (परिग्रह के) परिमाण की निश्चित की हुई मर्यादा को नहीं पालने से व्रत का जो उल्लंघन हुआ हो (उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ)।
इस व्रत को स्वीकार करने पर भी कभी अनजाने में या कभी लोभादि कषाय के अधीन होकर व्रत मर्यादा से बाहर की चीज़-वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा हुई हो या प्रमाद से कभी व्रत-मर्यादा चूक गई हो, मर्यादित वस्तु में भी अति आसक्ति की हो इत्यादि कोई भी अप्रशस्त आचरण हुआ हो तो वह व्रत विषयक दोष हैं। इस दोष से बचने के लिए ही श्रावक को परिग्रह परिमाण के पालन से एवं उसे न पालने से होने वाले फायदे एवं नुकसान को सोचकर मन को पहले से ही तैयार कर लेना चाहिए ताकि मन में कोई अशुभ विचार प्रकट ही ना हो। व्रत-पालन का फल :
परिग्रह परिमाण व्रत से इस भव में संतोष का निष्कंटक सुख, लक्ष्मी की स्थिरता (दरिद्रता का अभाव), लोक में प्रशंसा वगैरह अनेक फल मिलने के उपरांत परलोक में उत्तम ऋद्धिवंत मनुष्यत्व या श्रेष्ठ देवत्व एवं परंपरा से सिद्धगति की भी प्राप्ति होती हैं। इसके विपरीत अतिलोभ के वश होकर इच्छा परिमाणरूप इस व्रत को स्वीकार नहीं करने से या स्वीकार करके विराधना करने से दरिद्रता, दुर्भाग्य, दासत्व, दुर्गति आदि महाकष्ट चिरकाल तक भुगतने पड़ते हैं। कहा है कि महारंभ से, महापरिग्रह से, मांसादि आहार से एवं पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से जीव नरक का आयुष्य बाँधता हैं। अवतरणिका:
इस गाथा में लोभ के वश होकर पाँचवें व्रत को दूषित करें ऐसी संभावित प्रवृत्तियों को पाँच अतिचारों के माध्यम से बताते हैं :
5. महारंभयाए महापरिग्गहयाए कुणिमाहारेणं
पंचिदियवहेणं-जीवा नरयाउअं उज्जेइ ति।।