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चतुर्थ व्रत गाथा-.५
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मैथुन क्रिया सूक्ष्म एवं बादर दो प्रकार की है। उसमें वेद मोहनीय कर्म के उदय से जब इन्द्रियाँ एवं मन कुछ थोड़े भी विकारवाले होते हों, लेकिन वचन या काया से वैसी कोई भी कुप्रवृत्ति न होती हो तब उस विकार को सूक्ष्म मैथुन कहते हैं, तथा औदारिक शरीरवाली मानवीय स्त्रियाँ एवं वैक्रिय शरोरवाली देवांगनाओं के साथ मन, वचन, काया से जो संभोग क्रिया होती है, उसे स्थूल मैथुन कहते हैं।
अप्रमत्तभाव को प्राप्त करने वाले महामुनि ही निश्चयनय अनुमत शुद्ध ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर सकते हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषय सामने होते हुए भी वासनावृत्ति से सम्पूर्णतया परे रहकर आत्मभाव में लीन रहने का कार्य तो स्थूलभद्रजी जैसे कोई विरल महापुरुष ही कर सकते हैं।
सम्यग्दृष्टि श्रावक समझता है कि आत्मभाव में रमणता रूप ब्रह्मचर्य का पालन करना वही मेरा स्वभाव है, उसमें ही वास्तविक सुख है, मुक्ति का उपाय भी वही है; तो भी श्रावक जानता है कि उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि इस व्रत का स्वीकार कर उसका अखंड पालन कर सके । अत: अपने में इस व्रत पालन का सामर्थ्य प्रकट हो, इसलिए वह 'स्वदारासंतोष-परस्त्रीगमन विरमण' रूप चौथे व्रत का स्वीकार करता है।
इस व्रत को स्वीकारने के बाद श्रावक सदैव सोचता है कि यह अब्रह्म की क्रिया तो वासनारूपी महाअग्नि को शांत करने के लिए जलते में घी डालने जैसी है। यह वास्तविक सुख नहीं, मात्र दुःख की क्षणिक शांति है। सच्चा सुख तो ब्रह्मचर्य में है। मैथुन का सुख तो किंपाक फल जैसा है। किंपाक फल खाते समय मीठा लगता है, परंतु उसका परिणाम भयंकर होता है। इसी तरह बाह्य दृष्टि से मधुर लगता हुआ यह सुख परिणाम से भयंकर होता है। उपरांत जिस स्त्री में मेरा मन आसक्त होता है उसका अंतरंग स्वरूप तो मेरे जैसा ही है। बाहर से दिखता यह शरीर तो रक्त, मांस, हड्डी एवं विष्टा आदि का पिंड है। अशुद्धि भरे ऐसे पिंड में मुझे क्यों आसक्ति करनी चाहिए? इसलिए ही तो ज्ञानी पुरुषों ने काम-भोग या, आसक्ति को, शल्य, विष, सर्प आदि की तरह भावप्राण का घातक कहा हैं।' 2. ब्रह्मचर्य की विशेष समझ के लिए देखें सूत्र संवेदना भाग-१ सूत्र-२ 3. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ।
कामे य पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गइं॥२७॥-श्री इन्द्रिय-पराजय-शतक.