________________
१२८
वंदित्तु सूत्र
इस तरह से काम की भयंकरता को सोचते हुए श्रावक जहाँ तक संभव हो वहाँ तक इस प्रवृत्ति से पीछे हटता है और जब पीछे हटना मुमकिन न हो तब भी परिमित समय के लिए, मन की विरक्ति को सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नपूर्वक स्वस्त्री (पत्नी) के संग में संतोष मानता हैं। .
यह व्रत भी प्रथम व्रत का पूरक है, क्योंकि एक ही बार मैथुन क्रिया करने से २ लाख से ९ लाख गर्भज पंचेन्द्रिय तथा असंख्यात बेइन्द्रिय एवं असंख्यात सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रिय जीवों का विनाश होता है एवं इस क्रिया से मन रागादि भावों से विशेष विकृत बनता है। मैथुन का त्याग करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से इस तरीके से होने वाली द्रव्य-भाव हिंसा से बचा जा सकता है।
४. मेहूणसन्नारूढो नवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं तित्थयरेणं भणियं, सद्दहियव्वं पयत्तेणं ।।८६ ।।
- संबोधसत्तरी कामशास्त्र रचयिता वात्सायन भी कहते हैं कि रक्तजा: कृमयः सूक्ष्माः, मृदुमध्याधिशक्तयः । जन्मवर्त्मसु कण्डूति, जनयन्ति तथाविधाम् ।।८।। स्त्री के खून में से उत्पन्न हुए, अल्प-मध्य एवं विशेष शक्तिवाले, आंखों से दिख न सकें वैसे बारीक जीव-कीड़े (अपनी शक्ति प्रमाण) स्त्री की योनि में (गुह्य अंग में) एक प्रकार की (विषय की) खुजली उत्पन्न करते हैं। योनियन्त्रसमुत्पन्नाः, सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः। पीड्यमाना विपद्यन्ते, यत्र तन्मैथुनं त्यजेत् ।।७९॥ - योगशास्त्र-प्रकाश २-७९ जिस मैथुन सेवन से स्त्री की योनि रूप यंत्र में उत्पन्न हुए अति बारीक जीवों के समूह संघर्ष में पिसकर मर जाते हैं, उस मैथुन का त्याग करना चाहिए। इत्थीण जोणिमझे,गभगया चेव हुंति नवलक्खा। इक्को व दो व तिन्नि व, लक्खपुहुत्तं च उक्कोसं ।। इत्थीण जोणिमज्झे, हवंति बेइंदिआ असंखा य। उप्पाजंति चयंति य, समुच्छिमा तह असंखा ।।। इत्थीसंभोगेसमगं, तेसिं जीवाण हुंति उद्दवणं॥ - संबोधप्रकरण गा. ७३-७४-७६ स्त्रियों की योनि में गर्भज (मनुष्य) उत्कृष्टता से ९ लाख जीव उत्पन्न होते हैं, अर्थात् एक, दो, तीन से लेकर अधिकतम लक्ष पृथक्त्व पैदा होते हैं। इसके अलावा असंख्यात बेइन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं एवं संमूर्छिम (मनुष्य) भी असंख्यात उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। स्त्री संभोग से उन सब जीवों का एक साथ नाश होता हैं।