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चतुर्थ व्रत गाथा-१६
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हृदय से गमन करना, यह इस व्रत विषयक ‘अपरिगृहीतागमन' नामका प्रथम अतिचार हैं। इत्तर - ईत्वरपरिगृहितागमन। ईत्वर अर्थात् अल्प समय। निर्धारित समय तक पैसों से रखी हुई रखैल स्त्री का भोग करना, वह ईत्वरगृहितागमन' नाम का दूसरा अतिचार हैं।
जिसने ‘परदारागमन की विरति' स्वीकारी हो, उसके लिए ये दोनों प्रवृत्तियाँ अतिचार स्वरूप हैं। परंतु जिसने ‘स्वदारासंतोष-परदारागमन विरति' स्वीकारी हो, उसके लिए तो रखैल या विधवा, वेश्या आदि भी स्वदारा से अन्य होने से यह प्रवृत्ति अनाचार ही है।
अणंग - अनंगक्रीड़ा करना।
अनंग अर्थात् काम। उसको जागृत करने वाली अर्थात् काम वासना को उत्तेजित करनेवाली विविध क्रीड़ा करना, अथवा भोग के मुख्य अंग को छोड़कर स्तन,
ओष्ठ आदि अंगों का चुम्बन, आलिंगन आदि कामोत्तेजक चेष्टाएँ करना अनंगक्रीड़ा' नामक तीसरा अतिचार हैं। ऐसी क्रियाएँ चतुर्थ व्रत को दूषित करती हैं।
यहाँ इतना ध्यान में रखना चाहिए कि ये तीन अतिचार श्रावक अवस्था में नहीं होते, तो भी तीव्र वेदोदय के समय में कभी ये कार्य हो जाएँ तो व्रत भंग नहीं माना जाता, तथापि श्रावक के लिए ये अतिचार योग्य तो नहीं ही है। किसी भी संयोग में श्रावक को ये अतिचार न लगे, इसके लिए बहुत सावधान रहना चाहिए। विवाह - अपनी संतान के सिवाय अन्य का विवाह आदि करना, करवाना।
अपनी संतान का भी दायित्व यदि कोई लेता हो तो उसके विवाह आदि कार्य भी श्रावक न करे। परंतु जवाबदारी लेने वाला कोई न हो, अपनी संतान कुमार्ग पर न जाए, कोई अनर्थ न कर बैठे, इसके लिए अपनी संतान का विवाह करना पड़े तो करे, परंतु अन्य का विवाह तो न ही करे। ऐसा होते हुए भी किसी के प्रति स्नेह के कारण या विशेष संबंधों के कारण अन्य के विवाह में रस ले तो इस व्रत में 'परविवाहकरण' नाम का चौथा अतिचार लगता है। तिव्व-अणुरागे - तीव्र कामराग करना। अशुचि भावना, अन्यत्व भावना आदि का चिंतन करता हुआ श्रावक अपनी