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चतुर्थ व्रत गाथा-१६
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भागवत, पुराण, मनुस्मृति, वेदों जैसे जैनेतर ग्रंथों में भी मैथुन का सेवन पाप है, ऐसा बताकर उससे दूर रहने का उपदेश दिया है ।
इस तरह मैथुन की असारता एवं ब्रह्मचर्य की सार्थकता को सोचकर श्रावकों को यथाशक्ति अब्रह्म का सर्वथा त्याग करना चाहिए। यह संभव न हो तो भी भोगवृत्ति को संयम में रखनी चाहिए। पर्वतिथियाँ, कल्याणक के दिन, शाश्वती ओली, तीर्थ स्थानों एवं पर्युषण वगैरह पर्यों में तो ब्रह्मचर्य का अवश्य पालन करना ही चाहिए।
अपने ऊपर संयम रखते हुए भी कहीं प्रमाद, अनाभोग आदि से अतिचार लगा हो तो उससे मलिन बनी आत्मा को निन्दा, गर्दा द्वारा शुद्ध बनानी चाहिए।
इन दोनों गाथाओं का उच्चारण करते समय श्रावक सोचता है कि, 'ब्रह्मचर्य मेरा स्वभाव है। उसमें सब प्रकार का सुख है, तो भी मैं कायर हूँ, कुकर्मों से जकड़ा हुआ हूँ, कुसंस्कारों से व्याप्त हूँ। इसलिए अमृत के कुंड जैसे इस व्रत में मैं सदैव नहीं रह सकता। ऐसा होते हुए भी इस व्रत का यत्किंचित आस्वाद पाने के लिए मैं ने 'स्वदारासंतोष-परस्त्रीगमन विरमणव्रत' को स्वीकारा है। इस व्रत को स्वीकार कर, इसके पालन के लिए मैंने यत्किंचित प्रयत्न भी किया है, तो भी निर्बल निमित्तों के कारण, कभी मन एवं इन्द्रियाँ चंचल बनी हैं, कभी न देखने योग्य देखने में आया है, कभी नहीं करने योग्य किया है। हे भगवंत ! ये सब मैंने गलत किया है। इससे मैंने अपनी आत्मा को कलंकित किया है। __धन्य हैं सीता जैसी महासतियों को ! एवं धन्य है सुदर्शन जैसे महापुरुषों को! जिन्होंने इस व्रत को स्वीकार करके, मरणांत कष्ट सहन करके भी, व्रत को टिकाकर उसमें कहीं लेशमात्र भी आँच नहीं आने दी। धन्य है स्थूलभद्रजी जैसे 6. हे युधिष्ठिर ! एक रात्रि ब्रह्मचर्य पालन करने से जो सद्गति होती है, वह गति हजारों यज्ञ से
भी हो सके या नहीं, ऐसा कहना शक्य नहीं है॥१॥ एक ओर चारों वेद एवं दुसरी ओर ब्रह्मचर्य, ये दो समान हैं । उसी तरह एक और सभी पाप एवं दुसरी ओर मदिरा तथा मांसजन्य पाप, ये दोनो भी समान हैं ॥२॥ हर जगह क्लेश करवानेवाले, युद्ध करवा के मानवीओं को मरवानेवाले और पाप करने में तत्पर रहनेवाले नारदमुनि भी मुक्ति प्राप्त करते हैं । वह सच में ब्रह्मचर्य का ही महात्म्य हैं ॥३॥
- अर्थदीपिका