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प्रथम व्रत गाथा-९
प्रमाद के प्रकार : आत्मा का अहित करने वाला प्रमाद' अनेक प्रकार का है। उनको ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने प्रमाद के पाँच एवं आठ प्रकार बताए हैं। उनमें से पाँच प्रकार इस प्रकार हैं।
१) मद्य : मद्य का अर्थ मदिरा होता है, लेकिन यहाँ मद्य शब्द से जिससे नशा हो ऐसी किसी भी वस्तु के उपयोग को या केफीन पदार्थ के सेवन को मद्य नामक प्रमाद कहा है, क्योंकि उस नशे के कारण व्यक्ति अपनी शान-भान गँवा बैठता है। कई बार तो, मैंने इस प्रकार का व्रत लिया है, वह भी भूल जाता है और कभी सर्वथा विवेक खोकर व्रत की मर्यादा भी चूक जाता है।
२) विषय : शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श : पाँचों इन्द्रियों के इन पाँच विषयों में आसक्ति करना 'विषय' नामक प्रमाद है। इस प्रमाद के अधीन हुआ जीव अपने कल्पित भौतिक आनंद प्राप्त करने में अन्य जीवों को निरर्थक कितना त्रास होगा, यह सोच भी नहीं सकता। अत: वह अपनी विषयों की तृष्णा को संतुष्ट करने के लिए वनस्पतियों का विनाश करना, पानी में तैरना, फटाके फोड़कर आतिशबाजी करना, अग्नि जलाना इत्यादि कार्य करके अन्य जीवों को अकारण पीड़ा देता हैं अथवा उनकी हिंसा करता हैं।
३) कषाय : क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषायों एवं हास्यादिरूपी नोकषायों के अधीन होना कषाय' नाम का प्रमाद है। इस प्रमाद के परवश हुआ जीव मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करने से पहले, इस प्रवृत्ति से मेरा या अन्य का क्या अहित होगा, उसका लेश मात्र भी विचार नहीं कर पाता।
४) विकथा : आत्मा का अहित करने वाली कथा को विकथा कहते हैं। वह चार प्रकार की होती है : देशकथा, राजकथा, स्त्रीकथा एवं भक्त कथा। इसके अतिरिक्त धर्मरत्न प्रकरण में दर्शनभेदिनी, चारित्रभेदिनी एवं मृदुकारिणी कथाओं 7. मोक्षमार्गं प्रति शिथिलोद्यमो भवत्यनेन प्राणीति प्रमादः, किंविशिष्टः ‘अष्टविधः' अष्टप्रकारः, तथा चोक्तम् - अज्ञानं संशयश्चैव, मिथ्याज्ञानं तथैव च । रागद्वेषावनास्थानं, स्मृतेः धर्मेष्वनादरः ।।१।। योगदुष्प्रणिधानं च, प्रमादोष्टविधः स्मृतः । तेन योगात्प्रमत्तः स्यादप्रमत्तस्ततोन्यथा ।।२।। प्रमाद के आठ प्रकार हैं : १. अज्ञान, २. संशय, ३. मिथ्यात्व, ४. राग, ५. द्वेष, ६. मतिभ्रंश, ७. धर्म का अनादर-उपेक्षा एवं ८. मन-वचन-काय का अशुभ व्यापार।
- नवपद प्रकरण