________________
वंदित्तु सूत्र
यह व्रत प्रथम व्रत की बाड़ जैसा है। बाड़ से जैसे धान्य की रक्षा होती है, वैसे ही झूठ न बोलने से अपने तथा अन्य के द्रव्य या भाव प्राणों की सुरक्षा होती है और झूठ बोलने से अन्य को तो पीड़ा होती ही है, साथ में खुद को भी पीड़ा होती है, क्योंकि झूठ बोलने वाला स्वयं भी निर्भय और निश्चिंत नहीं रह पाता । व्रतधारी की भाषा :
१०६
असत्य का ऐसा स्वरूप होने से 'सर्वथा मृषावादविरमण' व्रत को स्वीकारने वाले श्रमण-श्रमणी भगवंत अनावश्यक एक शब्द भी नहीं बोलते। ज़रूरत हो तब भी मुनि भगवंत भगवान की आज्ञा का विचार करके, 'हित'' अर्थात् अपना एवं अन्य का भला हो ऐसी, ‘मित' अर्थात् कम से कम शब्दों में भाव व्यक्त हो जाए ऐसी और 'मधुर' अर्थात् सुनते ही जो सामने वाले व्यक्ति को अच्छी लगे ऐसी मीठी एवं उत्तम पुरुषों को शोभा दे ऐसी भाषा का बहुत सोच-समझपूर्वक प्रयोग करते हैं। इस प्रकार बोलते हुए भी कहीं मानादि कषाय के भाव का स्पर्श न हो जाए इसका पूरा ख्याल रखते हैं। इसके अतिरिक्त जिस बात का पूर्ण बोध हो वह बात भी 'पूर्वापर' का अर्थात् आगे पीछे का विचार करके, उसमें कोई शंका न रहे, उस तरीके से व्यक्त करते हैं।
श्रावक को इस प्रकार की उत्तम भाषा का ज्ञान होता है और वैसी भाषा के प्रति उसे आदर एवं बहुमान भी होता है, इसलिए उसकी भी दिली तमन्ना होती है कि 'मैं जो कुछ भी बोलूँ वह मेरे और अन्य सबके हित के लिए ही हो।' वाणी विषयक ऐसी उत्तम भावना होते हुए भी संसार में इस प्रकार की वाणी का व्यवहार करने से श्रावक को व्यवसाय आदि अनेक कार्यों में बाधा पहुँच सकती है और उसका ऐसा सत्त्व भी नहीं होता कि अपना संसार छोड़कर मुनि जैसी ही भाषा बोलने की प्रतिज्ञा कर सके, इसलिए सर्वथा मृषावाद विरमणव्रत को लक्ष्य बनाकर, उसके योग्य सत्त्व प्रकट करने के लिए श्रावक स्थूल मृषावाद विरमण व्रत स्वीकार करता है ।
4. हित मित मधुर अतुच्छता, गर्वरहित मित वाच;
पूर्वापर अविरोधी पद, वाणी वदे मुनि सा महुरं निउणं थोवं, कज्जावडियं अगव्वियमतुच्छां पुविं मइकलियं, भांति जं धम्मसंजुत्तं ।। ८० ।।
• उपदेशमाला
मधुर, निपुण, अल्प, कार्य के लिए ज़रूरी हो उतना याने प्रमाणोपेत्त, गर्वरहित सभ्य एवं बोलने से पहले संकलित किए हों ऐसे धर्मयुक्त वचन ही मुनि उच्चारते हैं।
-
• पद्मविजयकृत भाषासमिति की सज्झाय