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तृतीय व्रत गाथा-१४
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उसके लिए जागृति रखने का संकल्प करता हूँ।' ऐसा सोचकर श्रावक तीसरे व्रत के सब अतिचारों का प्रतिक्रमण करता है।
इन दो गाथाओं का उच्चारण करते समय श्रावक सोचता है कि,
'अचौर्य यह आत्मा का स्वभाव है तो भी सर्वथा अदत्तादान विरमणरूप तृतीय महाव्रत का पालन करना मेरे लिए छोटी सी उँगुली से मेरू पर्वत उठाने जैसा अतिदुष्कर कार्य है, तो भी एक छोटी नाव से संसार सागर पार करने के समान 'बड़ी चोरी नहीं करना' ऐसा मैंने व्रत लिया है। उस व्रत का विशुद्ध पालन करने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न भी किया है। तो भी प्रमाद से, लोभ से एवं व्रत के प्रति लापरवाही से, मुझ से व्रत को मलिन करने वाले, कर-चोरी जैसे कई कार्य हुए हैं। यह मैंने गलत किया है । इससे मैंने मेरी मुक्ति दूर की है। जीवन की शांति गँवाई है । मेरे यह भव एवं परभव दोनों बिगाड़े हैं। इसलिए मैं इन पापों एवं पाप करवानेवाली अंतरंग हीन वृत्तियों का तिरस्कार करता हूँ। गुरू भगवंतों के समक्ष गर्दा करता हूँ एवं ऐसे भावों से मेरी आत्मा को वापस लाता हूँ।
जीवन में पुनः पुनः ऐसे दोषोंका आसेवन ना हो इसके लिए प्राण जाए तो भी इस व्रत का अखंड पालन करने वाले अंबड परिव्राजक एवं उनके ७०० शिष्यों के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मुझ में भी व्रत पालन का ऐसा सत्त्व प्रकट हो, ऐसी अंत:करण पूर्वक प्रार्थना करता हूँ। चित्तवृत्ति का संस्करण :
इस गाथा में बताए हुए अतिचारों का पुन: कभी भी आसेवन ना हो वैसा चित्त तैयार करने के लिए निम्न विषयों का विशेषतः चिन्तन करना चाहिए।
• धंधे में, लेन-देन में व्यवहार शुद्ध रखना। • बही-खाते शुद्ध रखना।
3. अंबड परिव्राजक एक बार अपने ७०० शिष्यों सहित जंगल से गुजर रहे थे। उस समय प्यास
से सबके प्राण कंठ तक आ गए थे। तभी एक पानी से भरा तालाब दिखा। पानी सामने था परंतु पानी देने वाला कोई नहीं था। सबको अदत्त नहीं लेना, ऐसा व्रत था। प्रत्येक को प्राण जाए वह मंजूर था किन्तु प्रतिज्ञा तोड़ने की इच्छा नहीं थी। इसलिए सबने अनशन स्वीकार लिया, आयुष्य पूर्ण करके स्वर्ग सिधारे।