________________
११८
वंदित्तु सूत्र
व्यवहारनय से इन चारों प्रकार का अदत्त ग्रहण न करना अदत्तादान विरमण व्रत है। जब कि निश्चयनय से सोचा जाए तो किसी भी परभाव को ग्रहण करना अदत्तादान ही है, क्योंकि आत्मा अपने भाव की मालिकी रखती है। आत्मा से अतिरिक्त सर्व भाव आत्मा के लिए पराये हैं, परभाव हैं। पराये भाव को आत्मा स्वीकारती नहीं या किसी को दे भी नहीं सकती, इसलिए निश्चय नय से परभाव का स्वीकार मात्र भी अदत्तादान माना जाता है। निश्चय नय की इस दृष्टि को लक्ष्य में रखकर हरेक साधक को आत्मा के लिए अनुपयोगी हो ऐसे भाव एवं ऐसे पुद्गलों का त्याग कर देना चाहिए तथा वर्तमानकाल में आत्महित के लिए जिन द्रव्यों की आवश्यकता हो उन्हें भी देव गुरु की आज्ञानुसार ही उपयोग में लेना चाहिए। ऐसा करने से ही इस व्रत का विशुद्ध पालन हो पाता है।
श्रमण भगवंत इस बात को लक्ष्य में लेकर चारों प्रकार के अदत्त का त्याग करके इस व्रत का अखंड पालन कर सकते हैं, पर श्रावक में ऐसा सत्त्व नहीं होता कि इन चारों प्रकार के अदत्तों का त्याग कर सके तो भी इस प्रकार का त्याग करने के सामर्थ्य को प्रकट करने के लिए इन चारों प्रकार के अदत्तों में से वह मात्र स्वामी अदत्त की प्रतिज्ञा करता है।
यह स्वामी अदत्त भी स्थूल एवं सूक्ष्म भेद से दो प्रकार का है। उसमें स्थूल से 'स्वामी अदत्त' उसे कहते है कि जिस में वस्तु को लेने से ‘यह चोर है' ऐसा व्यवहार होता है। जैसे कि किसी का धन आदि छीन लेना, किसी के घर, दुकान या होटल आदि स्थल से कुछ भी वस्तु उठा लेना, विश्वासघात करना आदि। सूक्ष्म से स्वामी अदत्त उसे कहते हैं कि, जिस में अदत्तको ग्रहण करने से समाज 1. अदत्तस्य तत्स्वामिनाऽननुज्ञातस्य वस्तुनः समादानमदत्तादानम् तच्चस्थूल-सूक्ष्मभेदाद्
द्विविधम्। तत्र वृक्षाद्यधिपतिमननुज्ञाप्य तच्छायाद्यवस्थानमपि सूक्ष्ममदत्तम्। एतश्च प्रायः सर्वविरतिविषयम्। स्थूलं तु सन्धिदानाद्यन्यद् वा यतश्चौरङ्कारनृपनिग्रहादयः प्रवर्तन्त इति॥४१८॥
- हितोपदेश उसके स्वामी की अनुज्ञा बिना नहीं दी हुई वस्तु का ग्रहण अदत्तादान है। यह अदत्तादान स्थूल एवं सूक्ष्म भेद से दो प्रकार का है। जिसमें वृक्ष के मालिक की अनुज्ञा लिए बिना उसकी छाया में रहना भी सूक्ष्म अदत्तादान हैं। यह प्रायः सर्वविरति का विषय है, एवं स्थूल अदत्तादान अर्थात् सेंध लगाना आदि जिसके कारण चोर की तरह राजा का दंड आदि मिलता है।