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तृतीय व्रत गाथा-१३
विशेषार्थ :
तइए अणुव्वयम्मी, थूलग- परदव्वहरणविरईओ - तीसरे अणुव्रत में (दूसरे की मालिकी वाली वस्तु लेने स्वरूप) स्थूल चोरी करने की विरति (का उल्लंघन करने) से।
सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में तीसरा व्रत स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत' है। जिस प्रकार मृषाभाषा स्व-पर के लिए पीड़ाकारक होकर आत्मा के अहिंसक भावरूप मूल स्वभाव का नाश करती है, उसी तरह किसी की वस्तु छीन लेने से या चोरी करने से भी अपने एवं अन्य के द्रव्य-भाव प्राणों का विनाश होता हैं। इसलिए अहिंसक भावरूप अपने मूल स्वभाव को प्राप्त करने की इच्छावालें साधक को सर्वथा अदत्तादान विरमण व्रत का स्वीकार करना चाहिए। तृतीय व्रत का स्वरूप:
अदत्त = नहीं दिया हुआ। आदान = ग्रहण करना। द्रव्य के मूल मालिक की अनुमति लिए बिना उसकी सम्पत्ति लेना या छीनकर उस वस्तु पर अपना अधिकार जताना, यह ‘अदत्तादान' है। इस अदत्त का आदान चार प्रकार से होता है।
१) सोना, चांदी आदि वस्तुओं के जो मालिक हों, उनके दिए बिना सोना, चांदी, धन, संपत्ति आदि ले लेना, यह स्वामी अदत्त' है।
२) जीव मात्र अपने शरीर का मालिक होता है। उस जीव की अनुमति बिना उसके शरीर का भोग करना, उसका नाश करना 'जीव अदत्त' है।
३) परमात्मा को जीवन समर्पित करने के बाद, उनकी आज्ञा न हो ऐसा आधाकर्मी आदि दोष से दूषित आहार आदि लेना 'तीर्थकर अदत्त' है।
४) संयम जीवन स्वीकार कर, गुरू भगवंत के चरणों में मन-वचन-काया का सम्पूर्ण समर्पण करने के बाद, गुरू की आज्ञा विरुद्ध या आज्ञा बिना कार्य करना 'गुरू अदत्त' है। ये चारों प्रकार के अदत्त आत्मा का अहित करते हैं। वे स्व-पर के प्राणों को हानि पहुंचाते हैं, इसलिए अदत्तादान से सर्वथा विरत बने हुए साधु इन चारों में से एक भी प्रकार के अदत्त को ग्रहण नहीं करते।