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प्रथम व्रत गाथा - १०
व्रतों का पालन करना चाहिए, जिससे भविष्य में प्रमाद के वश होकर व्रतों में अतिचार लगने की संभावना घट जाए ।
जीवदया का पालन करने से निरोगी शरीर, सुंदर रूप, निर्विकारी यौवन, दीर्घ आयुष्य, निष्कलंक यश-कीर्ति, न्यायोपार्जित धन, पूज्य भाव धारण करने वाले पुत्र, विश्वसनीय परिवार, आज्ञा का ऐश्वर्य याने जब आज्ञा करे तब सब उसको स्वीकारे और सब को वह आज्ञा प्रिय लगे ऐसी ठकुराई आदि उत्तम सुख प्राप्त होते हैं। #
जबकि जीवदया का पालन नहीं करनेवाले का जीवन, स्वजनादि का वियोग, शोक, अल्पआयु, अकाल मरण, दुःख, दौर्भाग्य और महारोग आदि दुःखों से भरा हुआ होता है। वे लूले, लंगड़े, कुष्टरोग वाले होते हैं और नरक-तिर्यंच जैसी गतियों में परिभ्रमण करते हुए महा अनर्थों की परंपरा को प्राप्त करते हैं। अवतरणिका
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:
उसके
अब प्रमादादि के कारण प्रथम व्रत में जो अतिचार होने की संभावना है, मुख्य पाँच प्रकार बताते हैं :
गाथा :
वह-बंध- छविच्छेए, अइभारे भत्त - पाण वुच्छेए । पढम-वयस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं । ॥ १० ॥
अन्वयसहित संस्कृत छाया :
वध-बन्ध-छविच्छेदे, अतिभारे भक्त - पानव्यवच्छेदे । प्रथमव्रतस्य दैवसिकं सर्वान् अतिचारान् प्रतिक्रामामि ।। १० ।।
8. जं आरुग्गमुदग्गमप्पडिहयं आणेसरतं फुडं, रूवं अप्पडिरूवमुज्जलतरा कित्ती धणं जुव्वणं । दीहं आउ अवचणो परियणो पुत्ता सुपुण्णासया, तं सव्वं सचराचरं मिवि जए नूणं दयाए फलं ।। १ ।
पाणिवहे वट्टंता, भमंति भीमासु गग्भवसहीसुं । संसारमंडलगया, नरयतिरिक्खासु जोणीसुं ।। १ ।।
- संबोध प्र., श्रा. व्रताधि. गा. १२
- संबोध प्र. श्रा. व्रताधि. गा. १२