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वंदित्तु सूत्र
गाथार्थ :
१. (द्विपद-चतुष्पद प्राणियों को निर्दयता पूर्वक) मारना, २. रस्सी आदि से बाँधना, ३. शरीर अथवा चमड़ी को काटना, ४. शक्ति से अधिक भार लादना
और ५. उनको खानापानी न देना : ये प्रथम व्रत के पाँच अतिचार हैं। दिनभर में ऐसे जो भी अतिचारों का सेवन हुआ हो, उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ :
व्रत स्वीकार करने के बाद, व्रत को मलिन करे ऐसी प्रवृत्तियाँ अनाभोग से (बिना सोचे), सहसात्कार से, या सापेक्ष भाव से की हों तो वे व्रत संबंधी अतिचार कहलाते हैं। सापेक्ष भाव से की हों अर्थात् व्रत की मर्यादा की रक्षा करने का परिणाम होने पर भी दोष का सेवन हुआ हो - जैसे कि ऐसा सोचना कि 'मैंने स्थूल जीवों की हिंसा नहीं करने का नियम लिया है, परंतु किसी को किसी भी प्रकार से पीड़ा न देनी, ऐसा नियम नहीं लिया। अत: जीवों को सामान्यतया मारने आदि से व्रत भंग नहीं होता', ऐसा मानकर, अगर कोई वधादि किए जाए तो व्रत का नाश नहीं होता परंतु अतिचार तो लगता ही है, परंतु व्रत निरपेक्ष बनकर, जान-बूझकर, क्रूरता से वधादि करने से व्रत टिक नहीं सकता। इस प्रकार प्रत्येक व्रत में इतना खास ध्यान रखना है कि व्रत की सापेक्षता हो तब तक अतिचार माना गया है और व्रत की निरपेक्षता हो तब व्रत भंग होता
प्रथम व्रत को मलिन करने वाले वधादि बड़े पाँच अतिचार निम्न प्रकार के हैं: वह - वध।
वध करना अर्थात् मारपीट करना, ताड़न-तर्जन करना। यहां 'वध' शब्द का प्रयोग प्राणघात अर्थ में नहीं हुआ है । प्राणघात व्रत का अतिचार नहीं, परंतु अनाचार है, क्योंकि प्राणघात करने से व्रत भंग होता है। विषय-कषाय के अधीन होकर किसी भी जीव का ताड़न-तर्जन करना अथवा उसको पीड़ा पहुँचाना, वह वध है। क्रोधादि कषाय के वश होकर निष्कारण गाय, भैंस आदि पशुओं को तथा नौकर, चाकर, पुत्र, परिवार या पत्नी को मारना, लकड़ी आदि से पीटना, उनके हृदय को ठेस पहुँचे ऐसी वाणी का प्रयोग करना अथवा उनका अशुभ चिंतन