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वंदित्तु सूत्र
वगैरह करनी पड़े तो उससे व्रत में अतिचार नहीं लगता, क्योंकि वहाँ दुष्ट भाव
नहीं होता ।
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प्रथम व्रत
अइभारे - अतिभार उठवाने में।
जहाँ तक मुमकिन हो वहाँ तक श्रावक को नौकर-चाकर या पशु आदि रखने ही नहीं चाहिए, और यदि रखने भी पड़े तब भी उनसे उनकी शक्ति अनुसार ही कार्य करवाना चाहिए, परंतु लोभादि कषाय के अधीन होकर, शक्ति एवं मर्यादा से अधिक भार उठवाने में या अधिक कार्य करवाने में इस व्रत सबंधी अतिचार लगता है, क्योंकि इस प्रकार के व्यवहार से 'यह जीव भी मेरे जैसा है', यह भाव नहीं टिकता और उसके सुख-दुःख के प्रति उपेक्षा का भाव भी आ जाता हैं।
भत्तपाणवुच्छेए - भोजन पानी में अंतराय करना ।
श्रावक को भोजन करने से पहले जैसे सुपात्रदान संबंधी विचार करना चाहिए वैसे अपने नौकर-चाकर एवं पशु के आहार की चिंता भी करनी चाहिए। बीमारी आदि के कारण भोजन न देना इत्यादि प्रसंगों को छोड़कर, श्रावक को सबके आहार -पानी की व्यवस्था करने के बाद ही अपना भोजन करना चाहिए, ऐसा व्यवहार करते हुए भी कदाचित प्रमाद के कारण किसी को खिलाना-पिलाना रह जाए तो अतिचार लगता है।
इस प्रकार प्रथम व्रत संबंधी पाँच अतिचार बताए। उनके उपलक्षण से जीवों को पीड़ा हो वैसी मन, वचन, काया की कोई भी प्रवृत्ति करना वे सब इस व्रत के अतिचार माने जाते हैं।
जिज्ञासा - श्रावक को जीवों की स्थूल हिंसा नहीं करनी वैसा व्रत होता है। धादि करने से जीवों की हिंसा नहीं होती तो व्रत में दोष कैसे लगेगा ?
तृप्ति - यह व्रत दया के परिणाम को प्रकट एवं स्थिर करने के लिए है। उसमें मात्र स्थूल हिंसा की प्रतिज्ञा ही नहीं; परंतु सूक्ष्म हिंसा से बचने की भावना एवं यथासंभव प्रयत्न करना भी आवश्यक हैं। अकारण ताडन, तर्जन वगैरह करने से दया के परिणाम नष्ट होते हैं। यद्यपि जीवों की हिंसा ना होने से व्रत भंग नहीं होता तो भी व्रत में मलिनता तो आती ही है, क्योंकि शुभ भाव को जागृत करने का व्रत का जो ध्येय है वह ऐसी क्रिया करने से निष्पन्न नहीं होता ।