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प्रथम व्रत गाथा-१०
करना ये सब प्रथम व्रत के अतिचार हैं, क्योंकि ऐसा करने से जीवों को द्रव्य एवं भाव से पीड़ा होती है।
श्रावक को अपना जीवन इस तरीके से जीना चाहिए कि उसके प्रभाव से ही आसपास के सब परिवार जन आदि यथायोग्य रीति से अपने यथोचित कर्तव्य बजाएँ। ऐसा होते हुए भी कभी अपने परिवार आदि को कर्तव्य से चूकते हुए देखें, तब उनको उनके कर्तव्य में जोड़ने या विनयादि गुणों में स्थित कराने हेतु, उग्र भाषा में हित शिक्षा देना, डांटना, ठपका देना या खुद की संतान आदि को सुधारने के लिए उन्हें मारना, ये सब सकारण वध है। ऐसे वध में यद्यपि द्रव्य हिंसा है तो भी भाव हिंसा नहीं है। इसलिए ऐसी प्रवृत्ति से व्रत मलिन नहीं होता। बंध - प्राणियों को रस्सी वगैरह से बाँधना।
क्रोधादि कषाय के अधीन होकर पुत्र, परिवार या पशुओं को बिना कारण किसी भी प्रकार से बंधन में रखना या अपने नियंत्रण में रखना प्रथम व्रत विषयक दूसरा अतिचार है।
परंतु यहाँ यह खयाल में रखना है कि क्रोधादि कषाय के अधीन होकर निष्कारण बंध करने से ही अतिचार लगता है, परंतु कोई कारण से सापेक्ष भाव से बंध करने से अतिचार नहीं लगता। यद्यपि श्रावक के दास, दासी, पुत्र, परिवार
आदि ऐसे ही होते हैं कि उनको बाँधने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, फिर भी कभी पुत्रादि अनर्थकारी मार्ग पर जाते हों तो उनको रोकने के लिए सापेक्ष भाव से कोई बंधन या नियंत्रण करना पड़ता है। इस कारण किया हुआ बंध अतिचार रूप नहीं, परंतु उस समय अपने अध्यवसाय न बिगड़े, उसकी अति सावधानी रखनी चाहिए।
छविच्छेए - शरीर के अंगों को छेदना।
छवि अर्थात् शरीर, छेह अर्थात् छेदना, काटना। नाक, कान बिंधना या काटना छविच्छेद है। कषाय के अधीन होकर या ममता के कारण यह मेरा पशु है', ऐसी पहचान के लिए उसके नाक, कान बींधने से, गलकंबल, पूंछ आदि काटने से या उस पर अग्नि से निशान लगाने पर अतिचार लगता है, परंतु किसी रोग के कारण डाम देने से या चमड़ी उतरवाने से, चिकित्सा के लिए कभी सर्जरी