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प्रथम व्रत गाथा - १०
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पढ़म वयस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं प्रथम व्रत संबंधी दिन में लगे सर्व अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।
इस तरह सर्व अतिचारों को स्मृति में लाकर उनका प्रतिक्रमण करता हुआ श्रावक सोचता है कि 'प्रथम व्रत का स्वीकार करके आज के दिन अति सावधानीपूर्वक जीने का संकल्प किया था। उसके लिए यथामति एवं यथाशक्ति प्रयत्न भी किया था, फिर भी प्रमादवश, नासमझी में, अनाभोग से, सहसात्कार से दिन में अनेक छोटे-बडे अतिचार लगे हैं, यह नि:संदेह बहुत बुरा हुआ है। पुनः ऐसा न हो इसके लिए उन दोषों की आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ । गुरूसाक्षी से उनकी गर्हा करता हूँ एवं उनसे वापस लौटने का प्रयास करता हूँ ।'
इन दोनों गाथाओं का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि -
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'तलवार की धार पर चलना शायद सुलभ है, परंतु सर्वथा अहिंसा व्रत का पालन करना मुश्किल है । ऐसे व्रत के पालन का सामर्थ्य या शक्ति तो मुझ में नहीं; परंतु मुझमें ऐसी शक्ति प्रकट हो ऐसा ध्येय रखकर स्थूल हिंसा न करना ऐसा व्रत मैंने स्वीकारा है । व्रत स्वीकार कर उसका विशुद्ध पालन करके संसार समुद्र पार करने की मेरी तीव्र भावना है; परंतु प्रमाद आदि शत्रु मेरे व्रत में दूषण लगाए बिना नहीं रहते। धन्य है उन महामुनियों को जो महाव्रतों को स्वीकार कर आजीवन उनका निरतिचार पालन करते हैं। धन्य है उन श्रावकों को जो स्थूल हिंसा से दूर रहने का व्रत लेकर मरणांत कष्ट सहन करने पड़े तो भी अतिचार की इच्छा भी नहीं करते। उनके चरणों में प्रणाम करके उनके जैसा व्रत पालन का सत्त्व मुझमें भी खिले इसलिए परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ एवं दृढ़तापूर्वक व्रत में स्थिर होता हूँ ।
चित्तवृत्ति का संस्करण :
व्रत का ध्येय निष्पन्न करने के लिए श्रावक को निम्नोक्त मुद्दों के प्रति खास प्रयत्न करना चाहिए:
• जिन जीवों की हिंसा संबंधी नियम लिया है, उनकी हिंसा तो नहीं ही करनी चाहिए, परंतु जिनका नियम न हो वहाँ भी निरर्थक स्थावर या त्रस जीवों की हिंसा ना हो उसका खयाल रखना चाहिए।