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वंदित्तु सूत्र
शास्त्र में दूसरी तरह से जीव हिंसा के २४३ प्रकार बताए हैं। जैसे कि, पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तथा एक पंचेन्द्रिय सहित नव प्रकार के जीवों को मनवचन-काया से गुणा करके २७ भेद होते हैं, उनको करना-करवाना एवं अनुमोदन रूप तीन प्रकार से गुणा करके ८१ भेद होते हैं और उनको भूत-भविष्य-वर्तमान तीन काल के साथ गुणा करने से २४३ भेद होते हैं। उसमें से श्रावक उत्कृष्टता से त्याग करे तो भी तीन काल, तीन योग, दो करण एवं बेईन्द्रियादि चार प्रकार के त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता हैं। इससे ३४३४२४४ = ७२ प्रकार की हिंसा का ही त्याग कर सकता है और वो भी मात्र सवा वसा। सोचने से ऐसा लगता है कि २४३ प्रकारों में से मात्र ७२ प्रकार की हिंसा का त्याग करना और वो भी मात्र सवा वसा ही करना, तो क्या फल मिलेगा ? परंतु शास्त्रकार कहते हैं कि इस साधारण दिखते हुए त्याग के पीछे भी सर्वविरति तक पहुंचने की जो भावना है, उस भावना से ही अत्यधिक फल मिलता है।
आयरिअमप्पसत्थे इत्थ पमायप्पसंगणं' - प्रमाद के कारण अप्रशस्त भाव का उदय होते हुए इस प्रथम व्रत विषयक जो कोई विपरीत आचरण किया हो (उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ)।
व्रत का विशुद्ध पालन करने की पूर्ण भावना होने पर भी प्रमाद के कारण व्रत में दोष लग जाते हैं । प्रमाद अंतःकरण की एक दुर्बलता है । लोक व्यवहार में लापरवाही, शिथिलता, चित्त की विक्षिप्तता, उत्साह हीनता, आलस्य, उपेक्षा वृत्ति, असावधानी आदि प्रमाद के पर्याय हैं । पर शास्त्रकार कहते हैं कि मोक्षमार्ग के प्रति उद्यम की शिथिलता या मंदता ही प्रमाद है । अतः ‘स्थूल हिंसा नहीं करना', ऐसा व्रत स्वीकार करने वाले श्रावक को कोई भी प्रवृत्ति करते हुए सोचना चाहिए कि यह प्रवृत्ति मेरे व्रत के अनुरूप है या नहीं ?' यह क्रिया करते वक्त मैं जयणा के भाव के प्रति जागृत रहा कि नहीं ? ऐसी सावधानी न रखना प्रमाद है।
6. आयरियं - आर्ष प्रयोग है। उसका संस्कृत अतिचरितम् होता है। अतिचर अर्थात् मर्यादा
का उल्लंघन करना।