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प्रथम व्रत गाथा - ९
इस दया को सवा वसा की दया' कहते हैं। तो भी हिंसा के संपूर्ण त्याग की भावना वाला होने से श्रावक स्थावर की भी निरर्थक हिंसा नहीं करता । "
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यहाँ इतना खास ध्यान में रखना है कि पहला अणुव्रत मात्र इतने ही जीवों की हिंसा के त्याग रूप नहीं है, परंतु जिन जीवों की हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा न की हो उन जीवों के विषय में भी जयणापूर्वक अर्थात् कम से कम हिंसा से कार्य किस तरीके से हो सके, वैसे उपयोगपूर्वक जीवन जीने स्वरूप हैं। सतत हिंसा से बचने का भाव ही श्रावक को सर्वविरति रूप लक्ष्य तक पहुँचा सकता हैं।
शास्त्रों में कहा है कि, श्रावक को जो आरंभादि करने पड़ते हैं, उसमें यदि श्रावक दयावान बन यतना न करता हो, तो उसको पंचेन्द्रिय तक के जीवों के वध की संभावना रहती है। इसलिए जयणा का अर्थ हिंसा करने की छूट नहीं है, परंतु छूट रखे हुए विषय में अत्यंत उपयोग वाला बनना है । व्रत की इस गंभीरता को समझते हुए श्रेणिक महाराजा, कृष्ण वासुदेव जैसे महान श्रावक अविरति के उदय के कारण ही इन व्रतों का स्वीकार नहीं कर सके।
4.
हिंसा
स्व के भावप्राणों की हिंसा स्वयं के समता, क्षमा आदि
कार
भावहिंसा
पर के भाव प्राणों की हिंसा
दूस
उत्पन्न कराना
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द्रव्यहिंसा १००%
= २० वसा
स्थावर (सूक्ष्म) त्रस (स्थूल) ५०% = १० वसा
5. निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि ।
हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, काङ्क्षन् मोक्षमुपासकः ।।
संकल्पजन्य २५% = ५ वसा
निरपराधी १२.५% = २. ५वसा
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निष्कारण ६.२५% = १। वसा
सकारण
इस तरह महाव्रत की २० वसा की दया की अपेक्षा से अणुव्रत में मात्र १ । वसा की दया होती है अर्थात् श्रावक जीवन में रूपये में एक आना या सिर्फ ६.२५% जितना अहिंसा का पालन होता है।
आरंभजन्य
अपराधी
- योगशास्त्र २-२१
मोक्ष की इच्छावाला, अहिंसा धर्म का ज्ञाता, श्रावक निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता, तब त्रस जीवों की जयणा के लिए सोचना ही क्या ?