________________
प्रथम व्रत गाथा-१
इस द्रव्य हिंसा के भी दो प्रकार के भेद हो सकते हैं : १. अपने द्रव्य प्राणों को हानि पहुँचाना स्व-द्रव्य हिंसा और २. दूसरों के द्रव्य प्राणों को हानि पहुँचाना पर-द्रव्य हिंसा।
२) भाव हिंसा - ज्ञान, दर्शन, चारित्र या समतादि गुण, वे आत्मा के भाव प्राण हैं। इन प्राणों को हानि पहुँचाना या उनका नाश करना भाव हिंसा है।
यह भाव हिंसा दो प्रकार की है - १) राग, द्वेष अथवा कषाय के अधीन होकर अपने समता आदि भावों का नाश करना, स्व-भाव हिंसा है एवं २) अन्य के राग, द्वेष अथवा क्रोधादि में निमित्त बनकर अन्य की समता आदि का हरण करना, पर-भाव हिंसा है।
भाव हिंसा कषाय रूप है। इससे आत्मा को इस भव में एवं परभव में भी पीड़ा होती है। जहाँ स्व-भाव प्राण की हिंसा होती है वहाँ अन्य के द्रव्य-प्राण की हिंसा की संभावना बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि जहां कषायादि की अधीनता होती है वहाँ खुद के माने हुए सुख के लिए अन्य के द्रव्य प्राण की उपेक्षा होने की पूरी संभावना रहती है।
इस अपेक्षा से शास्त्रकारों ने द्रव्य हिंसा से भाव हिंसा को अधिक अनर्थकारी कहा है और कभी-कभी तो भाव-हिंसा से बचने के लिए द्रव्य-हिंसा को गौण भी किया है । जैसे एक स्थान में ज्यादा रहने से साधु-साध्वीजी में राग होने की संभावना है । अतः भगवान ने राग नामक भाव हिंसा से बचने के लिए साधुओं के लिए नवकल्पी विहार का विधान किया है और उस दौरान नदी भी उतरनी पडे तो उसको जयणापूर्वक उतरने की छूट भी दी है । भाव हिंसा से बचने के उपाय : __ भाव हिंसा से बचने के लिए, कर्म के उदय से, जो भी निमित्त मिले उसमें थोड़ा भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए। क्रोधादि कषायों से मन को विकृत नहीं
2. आतमभाव हिंसनथी हिंसा, संघला ए पापस्थान,
तेह थकी विपरीत अहिंसा, तास विरहनुं ध्यान॥८-२४॥
- ३५० गाथा का स्तवन