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( १८ ) जैनश्रमण, सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और देवपूजा आदि धार्मिक विधान मानने से इन्कार कर केवल अपनी असंयत अवस्था में 'पूजा करवाने की गरज से नया मत स्थापन किया परन्तु उसकी नींव इतनी कमजोर और गतिमंद थी कि अापके बाद करीब १०० वर्षों में हो आपके अनुयायी, श्रीपूज्य यतियों और श्रावकों ने लौकाशाह के द्वारा निषेव की हुई सब क्रियाओं को अपने मत में फिर से स्थान दिया इससे आपसी मत भेद मिटकर लौकाशाह का नाम को स्मृति के रूप में केवल लौकागच्छ नाम हो रह गया। - पुन: अठारहवीं शताब्दी में लोकागच्छीय यति श्रीमान धर्मसिंहजी और लवजी ने उस शान्त अनि को प्रज्वलित करने को एक नया उत्पात खड़ा किया जो पहिले मूर्तिपूजा निषेध का सिद्धान्त तो लोकाशाह का थाही पर स्वामी लवजी ने उसको बढ़ा कर विशेषतः मुंहपत्ती में डोरोडाल मुंहपर बांधने की प्रवृत्ति चलाई । और धर्मसिंहजी ने श्रावक के सामानिक आठ कोटि से होने का मिथ्या धामह किया उस समय इस प्रवृति का लौकाशाह के अनुयायियों द्वारा पूग २ विरोध हुआ फिर भी उन्होंने किसी की परवाह न करके भद्रिक अबोध जनता को अपने मत में फंसा ही लिया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भद्रिक अपठित जनता में एक समय वाममार्गी जैसे हिंसा और व्यभिचार प्रधान धर्म का भी प्रचार होगया तो स्वामि लवजी ने तो सिर्फ मुंहपर मुंहपत्ति बांध उपर से दया दया की ही पुकार की थो। अतएव अबाध लोगों में आपका मत चल पड़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इससे साफ जाहिर होता है कि स्थानकमार्गी समाज
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