Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ५, १.] यणमहाहियारे धेयगखत्तीवहाणे पदमीमांसा वि हाणीदो' समुप्पण्णअणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वढीदो अणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया णोम-णोविसिट्ठा, अणुक्कस्स-जहण्णम्मि अणुक्कस्सपदविसेसे वा आप्पिदे वडि-हाणीणमभावादो । एवं णाणावरणाणुक्कस्सवेयणा णवपदप्पिया | ९|| एवं तदियसुत्तपरूवणा कदा।
संपहि चउत्थसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा- जहण्णा णाणावरणीयवेणा सिया अणुक्कस्सा, अणुक्कस्सजहण्णस्स ओघजहणेण विसेसाभादो । सिया सादिया, अजहण्णादो जहण्णपदुप्पत्तीए । सिया अदुवा, सासदभावेण अवट्ठाणाभावादो । अणादिय-धुवपदाणि णत्थि, जहण्णक्खेत्तविसेसम्मि अणादिय-धुवत्ताणुवलंभादो । सिया जुम्मा, चदुहि अवहिरिज्जमाणे णिरग्गत्तदंसणादो। सिया णोम-णोविसिट्ठा, तत्थ वड्डि-हाणीणमभावादो । एवं जहण्णक्खेत्तवेयणा पंचपयारा सरूवेण छप्पयारा वा|५|| एवं चउत्थसुत्तपरूवणा कदा।
__संपहि पंचमसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा- अजहण्णा णाणावरणीयवेयणा सिया उक्कसा, अजहण्णुक्कस्सस्स ओघुक्कस्सादो पुधत्ताणुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, तदविणाभावादो । सिया सादिया, पल्लट्टणेण विणा अजहण्णपदविसेसाणमवट्ठाणाभावादो । सिया अडवा । कारणं सुगमं । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा ।
ओम भी है, क्योंकि, कहीं पर हानिसे भी उत्पन्न अनुत्कृष्ट पद पाया जाता है। कथंचितू वह विशिष्ट भी है, क्योंकि, कहींपर वृद्धिसे अतुत्कृष्ट पद पाया जाता है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट भी है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट जघन्यमें अथवा अनुत्कृष्ट पदविशेषकी विवक्षा करनेपर धृद्धि और हानि नहीं पायी जाती है। इस प्रकार ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्ट वेदना नौ (९) पदात्मक है। इस प्रकार तीसरे सूत्रकी अर्थप्ररूपणा की गई है।
अब चतुर्थ सूत्रकी अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट जघन्य ओघजघन्यसे भिन्न नहीं है। कथंचित् वह सादिक भी है, क्योंकि, अजघन्यसे जघन्य पद उत्पन्न होता है। कथंचित् वह अध्रुव भी है, क्योंकि, उसका सर्वदा अवस्थान नहीं रहता। अनादि और ध्रुव पद उसके नहीं हैं, क्योंकि, जघन्य क्षेत्रविशेषमें अनादि एवं ध्रुवपना नहीं पाया जाता । कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, उसे चारसे अपहृत करनेपर शेष कुछ नहीं रहता। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानिका अभाव है। इस प्रकार जघन्य क्षेत्रवेदना पांच (५) प्रकार अथवा अपने रूपके साथ छह प्रकार है। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रकी प्ररूपणा की है।
अव पांचवें सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-अजघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, अजघन्य उत्कृष्ट ओघउत्कृष्टसे पृथक् नहीं पाया जाता । कथंचित् वह अनुत्कृष्ट भी है, क्योंकि, वह उसका अविनाभावी है। कथंचित वह सादिक भी है, क्योंकि, पलटनेके विना अजघन्य पदविशेषोंका अवस्थान नहीं है। कथंचित् वह अध्रुव भी है। इसका कारण सुगम है । कथंचित् यह ओज भी है, युग्म भी है, ओम भी है, और विशिष्ट भी है। इसका कारण सुगम
१ ताप्रती · कथं ? हाणीदो' इति पाठः । २ ताप्रती · सासदाभावेण ' इति पाठः ।
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