Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १. णामेत्ति एदेण संबंधो कहिदो । तं जहा- कदि-वेदणादिचदुवीसअणिओगद्दारेसु तत्थ बंधणमिदि छट्ठमणिओगद्दारं । तं चउन्विहं बंधो बंधगा बंधणिजं बंधविहाणमिदि। तत्थ बंधो णाम जीवस्स कम्माणं च संबंध णयमस्सिदूण परुवेदि । बंधगो ति अहियारो एक्कारसअणिओगद्दारेहि बंधगे परूवेदि । बंधणिजं णाम अहियारो तेवीसवग्गणाहि बंधजोग्गमबंधजोग्गं च पोग्गलदव्वं परूवेदि । जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधो चेदि । तत्थ पयडिबंधो दुविहो मूलपयडिबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । जो सो मूलपयडिबंधो सो दुविहो एगेगमूलपयडिबंधो अव्वोगाढमूलपयडिबंधो चेदि । जो सो अव्वोगाढमूलपयडिबंधो सो दुविहो भुजगारबंधो पयडिट्ठाणबंधो चेदि। तत्थ उत्तरपयडिबंधस्स समुक्तित्तणाओ चदुवीसअणिआगदाराणि भवंति । तेसु चदुवीसअणिओगद्दारेसु बंधसामित्तं णाम अणिओगद्दारं । तस्सेव बंधसामित्तविचओ त्ति सण्णा । जो सो बंधसामित्तविचओ बंधण-बंधविहाणप्पसिद्धो [सो ] पवाहसरूवेण अणाइणिहणो । जो सो ति वयणेण जेण सो संभालिदो तेण एसो णिद्देसो संबंधपरूवओ। एसो चेव अभिहेयपरूवओ वि । तं जहा- जीव-कम्माणं मिच्छत्तासंजमकसाय-जोगेहि एयत्तपरिणामो बंधो । उत्तं च
है-कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में बन्धन नामक जो छठा अनुयोगद्वार है वह चार प्रकार है-बंध, बंधक,बन्धनीय और बन्धविधान । उनमें बन्ध नामक आधिकार जीव और कर्मोके सम्बन्धका नयकी अपेक्षा करके निरूपण करता है । बन्धक अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारोंसे बन्धकोंका निरूपण करता है । बन्धनीय नामक अधिकार तेईस वर्गणाओंसे बन्धयोग्य और अबन्धयोग्य पुद्गल द्रव्यका प्ररूपण करता है। जो बन्धविधान है वह चार प्रकार है- प्रकृतिबंध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । उनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकार है-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबंध। जो मूलप्रकृतिबन्ध है वह दो प्रकार है- एक एकमूलप्रकृतिवन्ध और अब्वोगाढमूलप्रकृतिबन्ध । जो अन्वोगाढ़मूलप्रकृतिबन्ध है वह दो प्रकार है- भुजगारबंध और प्रकृतिस्थानबन्ध । इनमें उत्तरप्रकृतिबन्धके समुत्कीर्तन करनेवाले चौबीस अनुयोगद्वार हैं। उन चौबीस अनुयोगद्वारों में बन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है। उसका ही नाम बन्धस्वामित्वविचय है। जो बन्धस्वामित्वविचय बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्धविधान अधिकारके भीतर प्रसिद्ध है वह प्रवाहरूपसे अनादिनिधन है । ' जो सो' इस वचनसे चूंकि उसका स्मरण कराया गया है इसीलिये यह निर्देश सम्बन्धका निरूपक है, और यही अभिधेयका भी निरूपक है। वह इस प्रकार है- जीव और कौका मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगोंसे जो एकत्व परिणाम होता है उसे बन्ध कहते हैं । कहा भी है
१ प्रतिषु अभिहिय' इति पाठः।
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