Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदयलि-पणीदो
छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
बंधसामित्तविचओ)
स तदियखंडो
( साहवज्झाइरिए अरहते वंदिऊण' सिद्धे वि ।
जे पंच लोगवाले वोच्छं बंधस्स सामित्तं ॥ जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य ॥ १॥
किमट्ठमिदं सुत्तं वुच्चदे ? संबंधाभिहेय-पओजणपदुप्पायणटुं । जो सो बंधसामित्तविचओ
साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत और सिद्ध, ये जो पंच लोकपाल अर्थात् लोकोत्तम परमेष्ठी हैं उनको नमस्कार करके बंधके स्वामित्वको कहते हैं।
जो बंधस्वामित्वविचय है उसका यह निर्देश ओघ और आदेशकी अपेक्षासे दो प्रकार है ॥ १॥
शंका---यह सूत्र क्यों कहा जाता है ?
समाधान-सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजनके बतलानेके लिये उक्त सूत्र कहा गया है।
'जो वह बंधस्वामित्वविचय है ' इससे सम्बन्ध कहा गया है । वह इस प्रकार . १ प्रतिषु — वढिऊण ' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः ‘लोकचाले' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'संबंधामिहिय-' इति पाठः ।
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