Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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४६] प्राकृतपैंगलम्
[१.९२ ९२. रोला का उदाहरण -
पृथ्वी (सेना के) पैर के बोझ से दबा (दल) दी गई; सूर्य का रथ धूल से ढंक (ॉप) गया; कमठ की पीठ तड़क गई, सुमेरु तथा मंदराचल की चोटियाँ काँप उठी, वीर हम्मीर हाथियों की सेना से सुसज्जित (संयुक्त) होकर क्रोध से (रणयात्रा के लिए) चल पड़ा । म्लेच्छों के पुत्रों ने बड़े कष्ट के साथ हाहाकार किया तथा वे मूर्छित हो गये ।
टिप्पणी-पअभरु-< पदभरेण ('उ' कर्मवाच्य कर्ता ए० व० का भी चिह्न है ।)
दरमरु-< दलमलिता । यह दो क्रियाओं से संयुक्त किया है। दर+/मर+उ । अवहट्ट में कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत में भी 'उ' चल पड़ा है, वस्तुतः यह म०भा० आ० 'ओ' (सं०क्त) का विकास है।
धरणि-अपभ्रंश में आकर दीर्घ स्वरांत प्रातिपदिक ह्रस्व स्वरांत हो गये हैं। दे० भायाणी संदेश० भू०६ ४१ ।
धुल्लिअ-< धूल्या। (म०भा०आ० में इकारांत-उकारांत शब्दों में करण-कर्मवाच्य कर्ता० ए० व० में 'ईअ' विभक्ति पाई जाती है; दे० पिशेल ६ ३८५ । इसी का विकसित रूप 'इअ' है।)
झंपिअ-/ झंप+इअ (कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत) । Vझंप देशी धातु है। इसे अनुकरणात्मक भी माना जा सकता है।
टरपरिअ-Vटरपर (अनुकरणात्मक धातु)+इअ । (कर्म० भूतका० कृदंत ) । कंपिअ, चलिअ-/कंप+इअ, Vचल+इअ । (कर्म० भूतका० कृदंत) कोह-कोह+ए । (ऐ-ए-एँ अप० में करण ए. व० की विभक्ति है)।
गअजूहसँजुत्ते- सँजुत्ते । अनुनासिक का अनुस्वार में परिवर्तन; 'ए' मा० अर्धमाग०; का कर्ताकारक ए० व० ब० व० का चिह्न; दे० गुरुजुत्ते $ ९१ । अथवा इसे 'आकारांत' प्रतिपादिक का तिर्यक् रूप भी माना जा सकता है।
किअ-(सं० कृतः) Vकि (>कर) + इअ + उ । इअ (कर्म भूत० कृदंत) है तथा 'उ' अपभ्रंश में कर्ताकर्म ए० व० की विभक्ति है। सं० 'कृतः' (हि० किया, ब्रज० कियो)।
मुच्छि - मुच्छ+ इ (अ) कर्म० भूत० कृदंत के पदांत 'अ' का लोप कर केवल 'इ' प्रत्यय का प्रयोग (सं० मूर्छितं)।
मेच्छहके-मेच्छहके की उत्पत्ति संस्कृत टीकाकारों ने 'म्लेच्छानां' से मानी हैं। हम देखते हैं कि यहाँ प्रातिपदिकांश 'मेच्छ' है, तथा 'हके' विभक्त्यंश है। अपभ्रंश में संबंध ए० व० में 'ह' तथा ब०व० में हैं-हुँ विभक्ति पाई जाती है। 'मेच्छह' में 'ह' संबंध ब० व० अप० 'है' का ही अननुनासिक विकास है। 'के' संभवत: परसर्ग है। 'क' 'की' संबंधवाचक परसर्ग हमें प्रा०पै० की भाषा में मिलते हैं-गाइक घित्ता, जाकी पिअला। 'के' भी ब० व० से संबद्ध संबंधवाचक परसर्ग है। 'मेच्छहके' का हिंदी रूप होगा 'म्लेच्छों के।' प्राकृतपैंगल में परसर्गों को प्रातिपदिकांश या तिर्यक् रूप के साथ ही संलग्न करके लिखने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यद्यपि प्रा०० में 'क', 'की', 'के' परसर्ग पाये जाते हैं, पर 'का' नहीं मिलता । वस्तुत: 'का' हिंदी (खड़ी बोली) की आकारांत प्रवृत्ति का द्योतक है। प्राकृतपैंगलम् प्रायः पूर्वी राजस्थानीब्रजभाषा की प्रवृत्ति का संकेत करता है, जहाँ इसका रूप क्रमश: 'को' (रा०), "कौ" (ब्र०) होता है; इसी ब्रज 'कौ' का तिर्यक् रूप 'के' (पुल्लिंग) होता है ।
पुत्ते-इसकी व्युत्पत्ति 'पुत्रैः' से मानी गई है; पुत्त+ए; करण (कर्मवाच्य भाववाच्य कर्ता) (ए० व०) । अप० में ब० व० का चिह्न 'एहि' है, 'जुत्ते' के साथ तुक मिलाने के लिए 'हि' का लोप कर दिया गया है। अथवा 'पुत्ते' की व्युत्पत्ति कर्ता कारक ए० व० ब० व० मा० अर्धमा० 'ए' से भी मानी जा सकती है। इस स्थिति में इसे कर्मवाच्य (कृतः का) तथा भाववाच्य (मूच्छितं का) कर्ता न मान कर कर्तृवाच्य कर्ता ही मानना होगा तथा 'मुच्छि मेच्छहके पुत्ते' का सं० अनुवाद 'मूच्छिता म्लेच्छानां पुत्राः' करना होगा । प्रायः सभी टीकाकार प्रथम व्युत्पत्ति के ही पक्ष में हैं ।
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