Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 657
________________ ६३२ प्राकृतपैंगलम् जिणि कंस विणासिअ, कित्ति पआसिअ, मुट्ठि अद्धि विणास करे, गिरि हत्थ धरे । जमलज्जुण भंजिअ, पअभर गंजिअ, कालिअ कुल संहार करे, जस भुअण भरे । चाणूर विहंडिअ, णिअकुल मंडिअ, राहामुह महुपाण करे, जिमि भमरवरे, सो तुम्ह णराअण, विप्पपराअण, चित्तह चिंतिअ देउ वरा, भअभीअहरा ॥१ दामोदर के 'वाणीभूषण' में भी इस छंद में जगण का विधान निषिद्ध माना गया है, किंतु वहाँ आरंभिक मात्रिक गण को 'षट्कल' मानकर गणव्यवस्था 'षट्कल + ८ चतुष्कल + 5' (४० मात्रा) उल्लिखित है। वाणीभूषण के उदाहरणपद्य में आभ्यंतर तुक का तो विधान है, किंतु पादांत 'क-ख', 'ग-घ' वाली तुक नहीं मिलती। प्रश्न हो सकता है, क्या तृतीय-चतुर्थ यतिखंडों में परस्पर तुक होने के कारण इस छंद में विषम-सम पादांत तुक की जरूरत नहीं मानी जाती रही है ? प्राकृतपैंगलम् से उदाहृत पद्य में 'क-ख' में तो 'हत्थधरे'-'भुअण भरे' की पादांत तुकव्यवस्था है, किंतु 'गघ' में 'भमरवरे'-'भअभीअहरा' में पादांत तुक नहीं मिलती । वाणीभूषण में यह प्रवृत्ति सार्वत्रिक दिखाई पड़ती है। विरहानलतप्ता, सीदति सुप्ता, रचितनलिनदलतल्पतले, मरकतविमले । करकलितकपोलं, गलितनिचोलं, नयति सततरुदितेन निशा-, मनिमेषदृशा || न सखीमभिनन्दति, रुजमनुविन्दति, निन्दति हिमकरनिकरं, परितापकरं । मनुते हृदि भारं, मुक्ताहारं, दिवसनिशाकरदीनमुखी, जीवितविमुखी ॥ इस पद्य के प्रथम-द्वितीय यतिखंडों में 'तप्ता-सुप्ता', 'कपोलं-निचोलं', 'नन्दति-विन्दति' और 'भारं- हारं' की सानुप्रासिक योजना और तृतीय-चतुर्थ यतिखंडों में 'तल्पतले-विमले', 'निशा-'दृशा', 'निकर-तापकरं' और 'दीनमुखी'विमुखी' की सानुप्रासिक योजना तुकांत व्यवस्था का स्पष्ट संकेत करती है। इस पद्य में पादांत तुक की व्यवस्था नहीं मिलती, जो 'विमले-"दृशा' और 'तापकर-विमुखी' की निरनुप्रासिक योजना से स्पष्ट है। किन्तु अन्य कवि पादांत तुक की भी व्यवस्था मानते जान पड़ते हैं। जैन कवि राजमल्ल ने इस छन्द का उल्लेख किया है। उनका लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है, और वे पादान्त तुक की व्यवस्था मानते हैं। केशवदास की 'छन्दमाला' में इसे 'मदनगृह' न कह कर ‘मदनमनोहर' कहा गया हैं। केशव के अनुसार इस छन्द में ४० मात्रायें ३० अक्षरों में निबद्ध की जाती हैं और इस तरह यहाँ आकर 'मदनगृह' शद्ध मात्रिक छंद न रह कर वर्णिक रूप को प्राप्त हो गया है ।५ केशवदास भी इसकी रचना में आरम्भ में 'दो लघु' (1); अन्त में गुरु (5) मानते हैं, और १०, ८, १४, ८ की यति का लक्षण में संकेत न होने पर भी पालन करते हैं। 'छन्दमाला' के उदाहरणपद्य में वे 'वाणीभूषण' की पद्धति का अनुगमन कर केवल आभ्यंतर तुक का ही निबंधन करते हैं, पादांत तुक का नहीं, किंतु 'रामचन्द्रिका' के 'मदनगृह' छन्दों में सर्वत्र पादांत तुक की भी पाबंदी करते दिखाई पड़ते हैं। 'सँग सीता लछिमन, श्री रघुनंदन, मातन के सुभ पाइ परे, सब दुख्ख हरे । अँसुवन अन्हवाए, भागनि आए, जीवन पाए अंक भरे, अरु अंक धरे ॥ बर बदन निहारें, सरबस बारें, देहि सबै सबहीन धनो, बरु लेहि घनो । तन मन न सँभारें, यहै विचारें, भाग बड़ो यह है अपनो, किधौं हे सपनो । (रामचंद्रिका २२.१६) उक्त उदाहरण के सभी चरण ४० मात्रा के हैं, किंतु 'मदनमनोहर' की तरह यहाँ सर्वत्र ३० अक्षर नहीं मिलते; यहाँ चारों चरणों में समानसंख्यक अक्षर न मिलकर क्रमश: ३०, २८, ३०, २९ अक्षर मिलते हैं । इस छंद को और ऐसे अनेक ४० मात्रा के छंदों को 'रामचंद्रिका' में 'मदनगृह' ही कहा गया है, 'मदनमनोहर' नहीं । संभवतः केशवदास को १. प्रा० पैं० १.२०७ २. वाणीभूषण १.१२३ ३. वाणीभूषण १.१२४ ४. हिंदी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० २.३५ ५. मदनमनोहर छन्द की कला एक सौ साठ । प्रतिपद अक्षर तीस कौ तब पढियत है पाठ ।। - छंदमाला २.४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690