Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 669
________________ ६४४ प्राकृतपैंगलम् और राजस्तुतियों में छप्पय का काफी प्रयोग रहा है । रोला (या वस्तुवदनक) के अलावा छप्पय छंद का अन्य भेद 'रासावलय + उल्लाला (कर्पूर या कुंकुम) के योग से भी बनता है और कविदर्पणकार ने इसका भी संकेत किया है।' संदेशरासक में पाँच छप्पय छन्द मिलते हैं । पुरानी हिंदी काव्यपरंपरा में इस छंद का प्रयोग विद्यापति की 'कीर्तिलता' में मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास की कवितावली में भी इसका प्रयोग हुआ है । दरबारी भट्ट कवियों का यह प्रसिद्ध छंद रहा है। गंग, नरहरि आदि के छप्पय प्रसिद्ध हैं और पृथ्वीराजरासो में तो छप्पयों का बहुतायत से प्रयोग मिलता है, जहाँ इसे 'कवित्त' कहा गया है। केशवदास की 'छंदमाला' में इसे 'कवित्त' (रोला) + उल्लाला' का मिश्रण बताया गया है। भिखारीदास ने बताया है कि छप्पय छंद के पूर्वार्ध में उसी रोला-भेद को लिया जाता है, जिसकी ग्यारहवीं मात्रा लघ्वक्षर के द्वारा निबद्ध की जाती है । इस रोला-भेद को वे 'काव्य' छंद कहते हैं : रोला मैं लघु रुद्र पर, काब्य कहावै छंद । ता आगे उल्लाल दै, जानहु छप्पै छंद । (छंदार्णव ७.३७) २०२. प्राकृतपैंगलम् के अनुसार रड्डा छंद में नौ चरण पाये जाते हैं । इसके प्रमुख भेद राजसेना रड्डा में पहले पाँच चरणों में क्रमश: १५, १२, १५, ११, १५ मात्रायें और बाकी चार चरणों में दोहा (१३, ११, १३, ११) निबद्ध होता है। इस प्रकार 'रडा' किसी छंदविशेष के साथ दोहा के मिश्रण से बना है। इस छंद का स्वतंत्र रूप से प्राकृतपेंगलम् में कोई संकेत नहीं मिलता । स्वयंभू में यह पंचपात् छंद 'मात्रा' (मत्ता) के नाम से संकेतित है। वहाँ इसकी मात्रायें विषम पदों में १६ और सम पदों में १२ बताई गई हैं। इसके अन्य भेदों का भी संकेत वहाँ मिलता है :- मत्तमधुकरी (१६, ११, १६, ११, १६), मत्तबालिका (१६, १३, १६, १३, १६), मत्तविलासिनी (१६, १२, १४, १२, १४) मत्तकरिणी (१६, १२, १७, १२, १७) । मात्रा के इन भेदों का विवरण हेमचंद्र और कविदर्पण में भी उपलब्ध है। प्राकृतपैंगलम में वर्णित रड्डा छंद के उक्त पाँच चरण मात्रा छंद के ही विविध भेदों के हैं। प्राकृतपैंगलम् में इन पाँच चरणों के मात्राभेद के आधार पर ही रड्डा के अनेक भेदों का संकेत किया गया है : १. करही १३, ११, १३, ११, १३. २. नंदा १४, ११, १४, ११, १४. ३. मोहिनी १९, ११, १९, ११, १९. ४. चारुसेनी १५, ११, १५, ११, १५. ५. भद्रा १५, १२, १५, १२, १५. ६. राजसेना १५, १२, १५, ११, १५. ७. तालंकिनी १६, १२, १६, १२, १६. इन भेदों के अतिरिक्त वृत्तजातिसमुच्चय में मोदनिका (१४, १२, १४, १२, १४), चारुनेत्री (१५, १३, १५, १३, १५), और राहुसेनी (१६, १४, १६, १४, १६) इन तीन भेदों का संकेत और मिलता है। इन विविध मात्रा-भेदों के साथ दोहे का मिश्रण होने पर यह छन्द रड्डा कहलाता है । इस मिश्रित छन्द (रड्डा) का सर्वप्रथम संकेत स्वयंभू में मिलता है।० अपभ्रंश कवियों के यहाँ रड्डा छन्द का प्रचलन इतना रहा है कि यह स्वतंत्र छन्द माना जाता रहा है । हेमचंद्र ने बताया है कि यद्यपि रड्डा भी छप्पय (सार्धच्छंदस्) की तरह ही 'द्विभंगिका' है, किंतु वृद्धानुरोध से उसका स्वतंत्र उल्लेख किया जायगा ।१९ मात्रा के उपर्युक्त विविध भेदों का संकेत करने के बाद हेमचन्द्र ने रडा का संकेत किया है, वे इसे १. कविदर्पण २.३३ २. कीर्तिलता पृ० १०।। ३. डा० विपिन बिहारी त्रिवेदी : चंद बरदायी और उनका काव्य पृ० २५२-२५३ ४. पहिले चरन कवित्त कहि पुनि उल्लालहि देउ । 'केसवदास' विचारिज्यो यौँ षटपद को भेउ ॥ - छंदमाला २.२८ ५. प्रा० .० १.१३३ ६. स्वयंभूच्छन्दस् ४.१४ ७. छन्दोनुशासन ४.१७-२१, कविदर्पण २.२८ ८. प्रा० पैं० १.१३६-१४३ ९. वृत्तजातिसमुच्चय ४.३० १०. स्वयंभू ४.२५ ११. वृद्धानुरोधात्तु रड्डा पृथगभिधास्यत इति सर्वमवदातम् । - छन्दोनु० ४.७९ वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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