Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६४१ वस्तुतः चौबोला, पज्झटिका जैसे षोडशमात्रिक छन्द (ची: पद्धडिका । (६.३०) चगणचतुष्कं पद्धडिका) और गन्धोदकधारा जैसे चतुर्दशमात्रिक छन्द के मिश्रित रूप 'मन्मथविलसित' का ही प्राकृतपैंगलम् वाला विकास है।
मध्ययुग में यह छन्द ठीक इसी रूप में नहीं दिखाई पड़ता, किंतु इसका विकसित रूप सममात्रिक वर्ग के त्रिंशन्मात्रिक छन्दों में मिलता है, जिसमें प्रत्येक चरण में १६, १४ पर यति पाई जाती है । भिखारीदास के 'छन्दार्णव' में 'चौबोला' का यही विकसित त्रिंशन्मात्रिक चतुष्पदी रूप मिलता है, जिसमें १६, १४ पर यति पाई जाती है। भिखारीदास का उदाहरण इस मान्यता को पुष्ट कर देगा ।
सुरपतिहित श्रीपति बामन व्है बलि भूपति सों छलहिं चह्यो, स्वामिकाजहित सुक्र दानहूँ रोक्या बरु हगहानि सह्यो । सुमति होत उपकार लखहि तौ झूठो कहत न संक गहै,
पर अपकार होत जानहि तौ कबहुँ न साँचौ बोल कहै । (छंदार्णव ५.२२८) स्पष्ट है कि भिखारीदास के 'चौबोला' का उदाहरण प्राकृतपैंगलम् के दो 'चौबोला' छन्दों को मिलाकर उसके प्रत्येक दल को एक चरण मान लेने से बना है। इसका ही एक रूप 'ताटंक' है, जिसका आधुनिक हिंदी कवियों ने भी बहुत प्रयोग किया है। 'चौबोला' छन्द की प्रत्येक द्विपात् अर्धाली को समग्र चरण की एक युति (इकाई) मान लेने पर और १६, १४ पर यतिव्यवस्था रखने पर 'ताटंक' छन्द होगा । हम नीचे प्राकृतपैंगलम् के 'चौबोला' को इस रूप में रखकर तुलना के लिये प्रसाद की कामायनी से एक ताटंक की अर्धाली उपस्थित कर रहे हैं। इन दोनों की लय, गति और गूंज से यह स्पष्ट हो जायगा ।
'हे धणि मत्तमअंगअगामिणि, खंदनलोअणि चंदमुही । १६ + १४
चंचल जोब्वण जात न जाणहि, छइल समप्पहि काइँ णही ॥ १६ + १४ (प्रा० पैं० १.१३२) 'उषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी सी उदित हुई । १६ + १४
उधर पराजित कालरात्रि भी, जल में अंतर्निहित हुई ॥ १६ + १४ (कामायनी : आशा सर्ग) उक्त उदाहरणों के आधार पर हम 'चौबोला' छन्द की गणव्यवस्था का भी अनुमान कर सकते हैं, जो विषम चरणों में '४ + ४ + ४ + ४' (चार चतुष्कल), सम चरणों में '४ + ४ + ४ + 5' (तीन चतुष्कल और एक गुरु) जान पडती है। यही 'ताटंक' छन्द में '४ + ४ + ४ + ४; (यति) ४ + ४ + ४ + ऽ' हो जायगी। संभवतः पुराने कवि इन चतुष्कल गणों की व्यवस्था में कोई गण प्रयुक्त कर सकते थे, किंतु ऐसा जान पड़ता है, प्रायः 'जगण' (151) का वारण किया जाता था । प्राकृतपैंगलम् के चतुष्कल गणों में अधिकांश 'भगणात्मक' (SI) हैं, केवल एक सर्वलघु (छइल सुरु, III) है। प्रसाद के ताटंक में हमें 'जगण' (उषा सु°), द्विगुरु चतुष्कल (°क्ष्मी सी), सर्वलघु चतुष्कल (उदित हु'), भी मिलते हैं, किंतु छन्द में 'जगण' तथा 'द्विगुरु' का वारण करने से लय अधिक सुंदर बन पायगी । चौबोला और ताटंक दोनों ही चार-चार मात्रा की ताल में मजे से गाये जा सकते हैं। इनके सभी चरणों (ताटंक-यत्यंशों) में पहली, पाँचवीं, नवीं और तेरहवीं (इसके बाद ताटंक की सतरहवीं, इक्कीसवीं, पच्चीसवीं और उन्तीसवीं) मात्रा पर ताल पड़ती है। इस छंद के 'ताटंक' स्वरूप का प्रयोग मैथिलीशरण गुप्त, श्यामनारायण पांडेय, गुरुभक्त सिंह, पन्त, दिनकर आदि अनेक आधुनिक कवियों ने किया है।
गुजराती के 'बृहत् पिंगल' में चौबोला का संकेत 'रणपिंगल' के आधार पर किया गया है। 'रणपिंगल' के रचनाकार ने 'चौबोला' को हिंदी 'ताटंक' से अभिन्न माना है और इसे १६, १४ पर यतिवाली त्रिशन्मात्रिक रचना बताया है। इस छंद के विषय में 'रणपिंगल' में निम्न विवरण मिलता है।
"चौबोला, चौयाला, चतुष्पथा, चतुर्वचन, चउबोला : १-३ विषमपदमां १६ मात्रा. २-४ समपदमां १४ मात्रा. प्रत्येक दलमां १, ५, ९, १३, १७, २१, २५, २९ मात्राए ताल. १. तीस मत्त चौबोल है, सोरह चौदह तत्तु । - छंदार्णव ५.२२५
२. दे० - डा० पुत्तूलाल शुक्ल : आधुनिक हिंदी काव्य में छंदयोजना, पृ० ३०३ Jain Education International
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