Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६३९
(२) मध्य की दो मात्रा सदा --
- - - (२) । २५ %
...
(१) । १२ %
(३) मध्य में केवल एक • _- - - (२) २५ % (ब) दोनों छंदों के चतुर्मात्रिक गण का विश्लेषण (१) विषम चरणों में सदा ..- १००% (२) सम चरणों में
-~- (१) । २५ % .... (१) | २५
~. (२) _ ५० % (स) सम चरणों के अंतिम त्रिकल का विश्लेषण
सम चरणों में ... (४) १००% चुलियाला
६ १९८. चुलियाला दोहा दोहे का ही एक विशेष भेद है, जिसमें दोहे की प्रत्येक अर्धाली में पाँच मात्राएँ अधिक पाई जाती हैं। इस प्रकार चुलियाला दोहा के विषम चरणों में १३ मात्रायें और समचरणों में १६ (११+५) मात्रायें पाई जाती हैं। ये पाँच मात्रायें 'कुसुमगण' (ISI) में निबद्ध होती हैं ।' चुलियाला छंद में दोहे की तरह ही तुकव्यवस्था 'ख-घ' (द्वितीय-चतुर्थ) चरणों में पाई जाती है। इस तरह का अर्धसम मात्रिक छंद स्वयंभू, हेमचंद्र तथा राजशेखरसूरि के यहाँ भी है, किंतु वे इसे 'कामिनीक्रीडनक' छंद कहते हैं । कविदर्पणकार ने ही सर्वप्रथम इसे प्रस्तुत पारिभाषिक संज्ञा देकर 'चूडालदोहा' कहा है, जिसका अर्थ है '(पाँच मात्रा की) चुटिया वाला दोहा' । उसका उदाहरण निम्न है :
'कुमइ जि मइरइ करइँ रइ, नरई ति वेयरणिहि नइहिं ।
रुंदरउद्दोहयतडिहिँ, लुलहिं पूयलोहियमइहिं ॥ छन्दःकोशकार इसी को केवल 'चूलिका' (चूलियाउ) छंद कहते हैं, वे किसी प्राचीन छन्दःशास्त्री गुल्ह का मत उद्धृत करते हैं :
दोहा छंद जु पढम पढि, मत्त ठविज्जहि पंच सुकेहा ।
चूलियाउ तं बुह मुणहु, गुल्ह पयंपइ सव्वसु एहा ॥ (पद्य २६) इसी प्रसंग में वहाँ एक अन्य छंद 'उपचूलिका' (उवचूलिय) का भी उल्लेख है, जिसमें दोहा के समचरणों में १०, १० मात्रा अधिक जोड़ी जाती हैं। उपचूलिका में इस तरह विषम चरणों में १३ और समचरणों में २१ मात्रायें होती हैं । उपचूलिका का लक्षणोदाहरण वहाँ निम्न दिया है :
दोहा छंदु जि दुदल पढि, दह दह कलसंजुत्त सु अठसठि मत्त सवि ।
उवचूलिय तं बुह मुणहु, लुहुगुरुगुणसंजुत्त सु जंपइ गुल्हकवि ॥ चूलियाला के उक्त उदाहरणपद्यों को देखने से पता चलता है कि कविदर्पणकार और गुल्ह दोनों चुलियाला के सम चरणों के अन्त में ।5।। (कुसुमगण) की व्यवस्था आवश्यक नहीं मानते, किंतु दामोदर ने 'वाणीभूषण' में इस छंद १. चुलिआला जइ देह किमु, दोहा उप्पर मत्तह पंचइ ।
पअ पअ उप्पर संठवइ, सुद्ध कुसुमगण अंतह दिज्जइ ॥ - प्रा० पैं० १.१६७ २. स्वयंभूच्छन्दस् ६.१३०, राजशेखर ५.१४२,
ओजे त्रयोदश समे षोडश कामिनीक्रीडनकम् - छन्दोनु० ६.१९
३. समपादयोरन्ते एकादशकलोय कृतेन पञ्चमात्रेण चूडालदोहक: स्यात् । - कविदर्पण २.१७ वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only
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