Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 665
________________ ६४० प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्य और उदाहरणपद्य दोनों में सम चरणों के अंतिम 'पंचकल' को 'जा' ही निबद्ध किया गया है। ऐसा जान पड़ता है, इस छंद की रचना में दोनों प्रणालियाँ प्रचलित थीं, कुछ लोग इन पाँच मात्राओं को किसी ढंग से निबद्ध करने के पक्ष में थे, कुछ इनको '15॥' रूप में । मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में 'चुलियाला' का विशेष प्रचलन नहीं रहा है। वैसे केशवदास इसका जिक्र जरूर करते हैं । वे इसे 'चूड़ामनि' छन्द कहते हैं । केशव ने अर्धाली के अंत में एक स्थान पर '15॥' और दूसरे स्थान पर '5' का निबंधन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि सम चरणों के अंत में 'दो लघु' (II) होना इस छन्द में अवश्य आवश्यक था । राधा बाधा मीन के, बेधहु जिनि तू रूप तपोधनु । जगजीवन की जीविका, ब्रजजन लेखन पृष्ठ देवगनु । दूसरी और भिखारीदास के लक्षणोदाहरण में फिर सम चरणों के अंत में 'कुसुमगण' (II) की व्यवस्था मिलती मैं पियमिलन अमिअ गुनो, बलि शिशु समुझि न तोहि निहोरति । झटकि झटकि कर लाडिली, चुरिया लाखन की कत फोरति ॥ (छंदार्णव ७.१३) उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चुलियाला बडा पुराना छन्द है, इसकी रचना के संबंध में दो मत पाये जाते हैं; किंतु दोनों अर्धाली के अन्त में 'दो लघु' (II) की रचना के पक्ष में हैं। मध्ययुगीन हिंदी कविता में आकर चुलियाला का प्रयोग लुप्त हो गया है, भले ही हिंदी छन्दःशास्त्रियों के यहाँ इसका उल्लेख मिलता रहा है। चौबोला ६ १९९. प्राकृतपैंगलम् में वर्णित 'चौबोला' छन्द अन्तरसमा चतुष्पदी है, जिसके विषम (प्रथम-तृतीय) चरणों में १६ मात्रा और सम (द्वितीय-चतुर्थ) चरणों में १४ मात्रा पाई जाती हैं। इन मात्राओं की योजना का कोई विधान प्राकृतपैंगलम् में नहीं है, जिससे इसके तत्तत् चरणों की गणव्यवस्था का पता चल सके । लक्षणोदाहरण की तुकव्यवस्था को देखने से ज्ञात होता है कि इसमें समानमात्रिक चरणों में ही परस्पर तुक मिलती है। इस प्रकार तुक की व्यवस्था 'क-ग' (a-c), 'ख-घ' (b-d) है । यह छन्द वाणीभूषण, छन्दमाला, छन्दविनोद, कहीं भी नहीं मिलता । गुजराती छन्दःशास्त्रीय ग्रंथ 'दलपतपिंगल' में भी इसका कोई संकेत नहीं है। हेमचंद्र के 'छन्दोनुशासन' में इस तरह की अन्तरसमा .चतुष्पदी मिलती है, जिसे वे 'मन्मथविलसित' छन्द कहते हैं। इसके सम चरणों में १४ और विषम चरणों में १६ मात्रा का विधान है। यहाँ तुक 'ख-घ' (b-d) पद्धति की है। 'समे चतुर्दश ओजे षोडश मन्मथविलसितम् । यथा मयवसतरुणिविलोअणतरलु । कलेवरु संपइ जीविउ ॥ मेल्हहु रमणीअणि सहु संगु । चयह हयवम्महविलसिउ ॥५ (यह शरीर, संपत्ति और जीवन मदवश तरुणी के नेत्र के समान चंचल है। स्त्रियों (रमणीजन) का साथ छोड़ दो, दुष्ट कामदेव के विलसित को त्यज दो ।) १. वाणीभूषण १.९३-९४ २. दोहा कै दुहु पदन दै पंच पंच कल देख । सब चूड़ामनि छंद के मत्त अठावन लेख || - छंदमाला २.४१ ३. दोहा दल के अंत में और पंचकल बंद निहारिय । नागराज पिंगल कहै चुरियाला सो छंद विचारिय ॥ - छंदार्णव ७.१२ ४. सोलह मत्तह बे वि पमाणहु, बीअ चउत्थहिं चारिदहा ।। मत्तह सट्ठि समग्गल जाणहु, चारि पआ चउबोल कहा ॥ - प्रा० पैं० १.१३१ ५. छंदोनुशासन ६.२० सूत्र पर उद्धृत पद्य संख्या ११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690