Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 655
________________ प्राकृतपैंगलम् अन्यथा हम यह पाठ ही लेते । वैसे प्रस्तुत दोनों पाठ भाषा की दृष्टि से एक से हैं । मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में वर्णिक त्रिभंगी का जिक्र करने वाले केवल भिखारीदास हैं । भिखारीदास ने वर्णिक त्रिभंगी का वर्णिक दंडकों में उल्लेख किया है। उनका लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है। भिखारीदास भी इस छन्द की यतिव्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं करते पर उनके उदाहरणपद्य से भी हमारी इस स्थापना की पुष्टि होती है कि यहाँ प्रत्येक चरण ८, ८, १२, ६, ८ मात्राओं के पाँच यतिखण्डों में विभक्त होता है। 'सजल जलद तनु, लसत विमल तनु, श्रमकन त्यों झलकोहैं, उमगोहैं, बुंद मनो हैं। भ्रवजुग मटकनि, फिरि फिरि लटकनि, अनिमिष नयनहि जोहैं, हरषोहैं, द्वै मन मोहैं । पगि पगि पुनि पुनि, खिन खिन सुनि सुनि, मृदु मृदु ताल मृदंगी, मुहचंगी, झाँझ उपंगी। बरहि-बरह धरि, अमित कलनि करि, नचत अहीरन संगी, बहुरंगी, लाल त्रिभंगी ॥ इस संबंध में 'त्रिभंगी' शब्द के अर्थ पर विचार कर लिया जाय । 'त्रिभंगी' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन और कविदर्पण में मिलता है, किंतु वहाँ यह उक्त प्रकार के ४० मात्रावाले सममात्रिक छन्द या ३४ अक्षर और ४२ मात्रा वाले (वर्णिक कोटि के) छन्द के लिये नहीं पाया जाता । हेमचन्द्र ने छंदोनुशासन के चतुर्थ अध्याय में 'द्विभंगी' और 'त्रिभंगी' शब्दों का प्रयोग क्रमशः उन छन्दों के लिये किया है, जो दो छंदों या तीन छन्दों के मिश्रण से बने हों । 'द्विभंगी' की परिभाषा में हेमचन्द्र ने बताया है कि दो द्विपदी गीतियों से बना मिश्रित छन्द 'द्विभंगिका' है, किंतु अन्य दो छन्दों के मिश्रण से बने छन्द को भी 'द्विभंगी' कहा जाता है और 'गाथा' + भद्रिका, 'वस्तुवदनक + कर्पूर' 'रसावलय+कर्पूर' जैसी अनेक मिश्रित 'द्विभंगियों' का वे जिक्र करते हैं। इस परिभाषा के अनुसार हिंदी के कुंडलिया और छप्पय छन्द 'द्विभंगी' कोटि में आयेंगे । इसी तरह हेमचन्द्र के अनुसार 'त्रिभंगी' का पहला भेद 'द्विपदी + अवलंबक + गीति' के मिश्रण से बनता है। किन्हीं भी तीन छन्दों के मिश्रण से बने छन्द को 'त्रिभंगिका' माना जाने लगा है, इसका संकेत भी हेमचन्द्र करते हैं और उन्होंने इस संबंध में केवल एक ही भेद का उपलक्षण के ढंग पर संकेत किया है - 'मंजरी + खंडिता + भद्रिका गीति' । स्पष्ट है कि किन्ही तीन जातिछन्दों या तालच्छन्दों के मिश्रण से बने 'संकर छन्द' को अपभ्रंश छन्दःशास्त्री 'त्रिभंगिका' (त्रिभंगी) कहते थे । कविदर्पणकार ने तीन प्रकार की त्रिभंगियों का जिक्र किया है : - (१) खण्ड + खण्ड + गीति (२) मात्रा + दोहा + उल्लाल (३) द्विपदी + खण्ड + गीति इस ढंग पर अपभ्रंश में चार छन्दों से बनी 'चतुर्भङ्गी' और पाँच छन्दों के मिश्रण से बनी 'पञ्चभङ्गी' भी प्रसिद्ध हैं। डा० वेलणकर ने 'वृत्तजातिसमुच्चय' के 'ताल' और 'तालवृन्त' छन्दों को क्रमशः 'चतुर्भङ्गी' (गाथा + अधिकाक्षरा + निर्वापिता + गीति), और 'पंचभङ्गी' (गाथा + अधिकाक्षरा + निर्वापिता + गीति + गाथा) कहा है। इस दृष्टि से हम देखते हैं कि उक्त 'त्रिभंगिका' को तीन छन्दों का मिश्रण कहा जा सकता है। मात्रिक त्रिभंगी में प्रत्येक चरण का प्रथम यतिखंड १० मात्रा का, द्वितीय यतिखंड ८ मात्रा का, तृतीय यतिखंड ८ मात्रा का, और चतुर्थ यतिखंड ६ मात्रा का है। इस तरह यहाँ एक दशमात्रिक चतुष्पदी, दो अष्टमात्रिक चतुष्पदियों १. पंच विप्र भागनु दु गुरु, स गो नंद यो ठाउ । चरन चरन चौतिस बरन बरन त्रिभंगी गाउ || - छंदार्णव १५.८ २. वही १५.९ ३. द्विपद्यन्ते गीतिभिङ्गिका । द्वौ द्विपदीगीतिरूपौ भंगावस्यां द्विभंगिका ॥ (छन्दो० ४.७८) ४. अन्यथापि ॥ अन्यैरपि छन्दोभिर्द्वन्द्वितैर्द्विभङ्गी अन्यैरुक्ता । (छन्दो० ४.७९ सूत्र तथा उस पर उद्धृत अनेक उदाहरण देखिये) ५. द्विपद्यवलंबकान्ते गीतिस्त्रिभङ्गिका | पूर्वं द्विपदी पश्चादवलंबकस्तदन्ते गीतिरिति त्रिभङ्गिका । - छन्दोनु० ४.८० ६. त्रिभिरन्यैरपि ॥ अन्यैरपि त्रिभिश्छन्दोभिः श्रुतिसुखैस्त्रिभङ्गिका । - वही ४.८१ ७. कविदर्पण २.३६-३७ 6. Prakrita and Apabhramsa Metres. (J. B. R. A. S. Vol. 23, 1947, p. 1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690