Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
१४८]
प्राकृतपैंगलम्
[२.१७१
जहा,
सज्जिअ जोह विवड्डिअ कोह चलाउ धणू, पक्खर वाह चलू रणणाह फुरंत तणू । पत्ति चलंत करे धरि कुंत सुखग्गकरा कण्ण णरेंद सुसज्जिअ विंद चलंति धरा ॥१७१॥
(नील) १७१. उदाहरण:
अत्यधिक प्रवृद्ध क्रोध वाले योद्धा सज गये हैं, वे (क्रोध से) धनुष चला रहे हैं, फुरकते शरीर वाला सेनापति (रणनाथ) सजे हुए (पाखर वाले) घोड़े से जा रहा है। पदाति (पैदल सिपाही) हाथ में भाले लेकर तथा सुंदर खड्गों से युक्त होकर चले जा रहे हैं । राजा कर्ण के सुसज्जित होकर चलने पर पृथ्वी चलने (डगमगाने) लगती है (अथवा पर्वत डगमगाने लगते हैं)।
टि०-सज्जिअ-< सज्जिताः, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत का प्रयोग । विवडिअकोह-< विद्धितक्रोधाः, कर्ता ब० व० ।
चलाउ-/'चल' का णिजंत रूप 'चला' होगा, उसी में 'उ' जोड़ दिया गया है, क्रिया पद 'चलाइ' होना चाहिए, जो केवल एक हस्तलेख (B) में पाया जाता है।
चलू (=चलु)-< चलितः (छंदोनिर्वाहार्थ पदांत 'उ' का दीर्घ) फुरंत तणू-< स्फुरत्तन्नू; फुरंत, वर्तमानकालिक कृदंत । चलंत-< चलन्तः ('पत्तयः' का विशेषण) वर्तमानकालिक कृदंत । धरि< धरिअ < धृत्वा (*धार्य) पूर्वकालिक क्रिया रूप । सुसज्जिअ-< सुसज्ज्य, पूर्वकालिक क्रियारूप । चलंति-< चलति, वर्तमानकालिक कृदंत का अधिकरण ए० व० रूप ।
चलंति-यहाँ टीकाकारों ने 'चलंति' का अनुवाद '(धरा) चलति' किया है। यदि इसे समापिका (फाइनिट) क्रिया माना जाता है तो अनुस्वार को छन्दोनिर्वाहार्थ मानना होगा तथा तत्सम 'चलति' (छन्दोनिर्वाहार्थ सानुस्वाररूप 'चलंति') प्रा० पैं० की भाषा में अपवाद स्वरूप होगा; अथवा इसे असमापिका क्रिया का वर्तमानकालिक कृदंत रूप मान कर स्त्रीलिंग रूप (चलंत+इ, (स्त्रीलिंग प्रत्यय) मानना होगा, जो धरा का विशेषण है। एक तीसरा मत यह भी हो सकता है कि इसको समापिका क्रिया के वर्तमान ब० व० का रूप माना जाय, तथा इस तरह संस्कृत अनुवाद किया जा सकता है:-'धराः पर्वताः चलंति दोलायंते इत्यर्थः' । मेरी समझ में पिछली दो व्युत्पत्तियाँ ठीक होंगी।
चञ्चला छंद:
दिज्जिए सुपण्ण आइ एक्क तो पओहराइ, हिण्णि रूअ पंच चक्क सव्वलो मणोहराइ ।
अंत दिज्ज गंध बंधु अक्खराइ सोलहाइ, चंचला विणिम्मिआ फर्णिद एउ वल्लहाइ ॥१७२॥ १७२. जहाँ प्रत्येक चरण के आदि में रमण दिया जाता है, तब एक जगण ह; इस क्रम से पाँच मनोहर सबल चक्र (गण) दिये जायें, अंत में गंध वर्ण (लघु अक्षर) दिया जाय तथा सोलह अक्षर हों, इसे फणीन्द्र ने वल्लभा (प्रिय) चंचला छन्द बताया है।
(चंचला:-SISISISISISISIS=१६ वर्ण)
१७१. विवडिअ-C. विवडिअ, K. बिबड्डिअ । चलाउ-B. चलाइ । पक्खर-C. N. पक्खरु । वाह चलू-A. वाह चल, C. धारु धलू, N. वाह चमू । रणणाह-C. N. णरणाह । फुरंत-N. फुलन्त, O. पफूल्ल । चलंत-C. पलंत । कण्ण-N. पुण्ण । १७२. दिज्जिए-C. N. दिज्जिआ, 0. दिज्जआ। तो-0. हो । पओहराइ-A. पआहराहि, C.N. पओहराई। हिण्ण-C. कण्ण, 0. एण्ण । चक्क-N. वङ्क । मणोहराइ-C. N. मणोहराई। दिज्ज-C. किज्ज । बंधु-C. बंध, N. वण्ण । अक्खराइ सोलहाइC. अक्खराइँ सोहराईं, N. अक्खराइ सोलहाई। विणिम्मिआ-K. विणिमिआ फणिंद-N. फर्णिदु । ए-C. N. एहु । वल्लहाइC. N. दुल्लहाइँ । १७२-C. १८६, N. २०६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org