Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् गिरते हैं;' 'कुंजरु अण्णहं तरुवरहं कुड्डेण घल्लइ हत्थ' (हेमचंद्र ८.४.४२२) 'हाथी उत्सुकतासे अन्य पेड़ों पर अपनी सँड डालता है" । इसी का प्रा० पैं० में 'ह' रूप है।
- अट्ठह (२.२०८) < अष्टसु, पाअह (२.१९४) < पादेषु ।
(३) हिँ - हि वाले रूप. (१) करण ब० व० के रूपः
तीसक्खराहि (१.५९)<त्रिंशदक्षरैः, वंकेहिँ (१.९३) < वः, वण्णहि (२.२०६)< वर्णैः, गअहि (१.१९३)< गजैः, तुरअहि (१.१९३)> तुरगैः, रहहि (१.१९३)< रथैः, दोहिं (२.२०१)> द्वाभ्यां, धूलिहि (१.१५५)<धूलिभिः, परहणेहिँ (१.३०) < प्रहरणैः, विप्पगणहि (१.१९९) < विप्रगणैः, लोअहि (२.१८४) < लौकैः, जाइहिँ (२.११८)< जातिभिः । -
(२) अधिकरण ब० व० के रूप - ठामहि (१.१९६) < स्थानेषु । (४) शून्यरूपः(१) करण ब० व०
०चावचक्कमुग्गरा (वस्तुतः 'मुग्गर' का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ रूप, २.१९६ < 'मुद्गरैः, खुर (१.२०४) < खुरैः, णवकेसु (१.१३५) < नवकिंशुकैः, पत्तिपाअ (२.१११) < पदातिपादैः, हत्थि (२.१३२) < हस्तिभिः, मणिमंत (१.६) < मणिमंत्राभ्यां, खेह (२.१११) < धूलिभिः ।
(२) अधिकरण ब० व०
काअरा (वस्तुतः ‘काअर' का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घरूप) < कातरेषु, सव पअ (१.२०२) < सर्वेषु पादेषु, सव दीस (२.१९७) । सव्व दिस (२.२०३) < सर्वदिक्षु, वसु (१.२०२) < वसुषु.
(५) इनके अतिरिक्त एक उदाहरण 'ए वाला भी करण ब० व० में मिलता है :- पुत्ते (१.९२) < पुत्रैः । सम्प्रदान-संबंध ब० व०
६ ८५. प्रा० भा० आ० में संबंध कारक ब० व० का चिह्न 'आम्' है; जिसका विकास आ० भा० यू० *ओम् से माना जाता है । अवेस्ता में यह 'अम्', (अवेस्ता अपम्-सं० अपाम्; अवेस्ता 'बअर-अज़तम्' -सं० बृहताम्), ग्रीक में 'ओन्' ('लोगोन्' - 'शब्दों का'), लैतिन में 'उम्' ('मेन्सुम' - टेबिल का) पाया जाता है। भारतेरानी वर्ग में यह 'आम्' अदंत शब्दों के साथ 'नाम्' पाया जाता है, जो आ० भा० यू० *नोम् से विकसित है। आरंभ में यह केवल अदन्त स्त्रीलिंग शब्दों का संबंध ब० व० का सुप् प्रत्यय था, क्योंकि ग्रीक तथा लैतिन में इसके चिह्न केवल स्त्रीलिंग रूपों में ही मिलते हैं। भारतेरानी वर्ग में यह स्त्रीलिंग शब्दों में न पाया जाकर केवल अदन्त पुल्लिंग नपुं० शब्द-रूपों ही में मिलता है। इसका अवेस्ता वाला प्रतिरूप 'नम्' है :- अवे० मश्यानम् (सं० माणाम्), अवे० गइरिनम् (सं० गिरीणाम्), अवे० वोहुनम् (सं० वसूनाम्) ।
प्रा० भा० आ० का यह -आम् तथा -नाम्, प्राकृत में आकर –ण-णं, -पाया जाता है, जो सभी तरह के पु०, नपुं०, स्त्री० शब्दों के साथ व्यवहृत होता है। प्राकृत में सम्प्रदान-संबंध कारक के एक हो जाने से यह सम्प्रदानार्थे भी प्रयुक्त होने लगा है। अपभ्रंश में सम्प्रदान-संबंध ब० व० का चिह्न -आह-आह-आह, -अहं-अहँ-अह हैं । पिशेल ने इसकी व्युत्पत्ति प्रा० भा० आ० '-साम्' में मानते हुए कहा है - "अप० में संबंध कारक ब० व० का सुप् चिह्न आहँ तथा उसका ह्रस्व रूप-अहँ हैं, जिनकी उत्पत्ति सर्वनाम शब्दों के संबंध ब० व० सुप् प्रत्यय 'साम्' (तेषाम्, येषाम्) से मानी जा सकती है।"३ अप० में अपादान कारक भी सम्प्रदान-संबंध में समाहित होने से अपादान का -हुँ प्रत्यय भी संबंध ब० व० में प्रयुक्त होने लगा है। पिशेल ने अपादान ब० व० के 'हुँ' की उत्पत्ति प्रा० भा० आ० अपादान द्विवचन प्रत्यय 'भ्याम्' से मानी है। डा० टगारे ने इसे मान्यता नहीं दी है, वे इसे संबंध ए० व० 'ह' के संबंध ब० व० १. भोलाशंकर व्यासः संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन पृ० ७५ तथा पृ० १७५ २. हेमचंद्र : प्राकृत व्याकरण ८.४.३३२ ३. Pischel : 8370, कोष्ठक के उदाहरण-'तेषाम, येषाम्' मेरे हैं, पिशेल ने नहीं दिये हैं। ४. ibid : $369
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