Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् (१) काइ लवंतउ माठि करि, परदेसी प्रिउ आँणि । (ढोला दो० ३४) । (२) ताँह दिहाँरी गोरड़ी पडतउ झालइ आभ । (वही, २८२). (३) पंथी हाथ सँदेसड़इ धण विललंती देह । (वही, १३७). (४) जिणD सुपनैं देखती, प्रगट भए प्रिय आइ । (वही, ५५७).
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजस्थानी साहित्य में ये अंत वाले प्रयोग 'आर्केक' ही हैं। इस तरह के प्रयोग कभी कभी आज भी राजस्थानी लोकगीतों में अत वाले रूपों के साथ साथ पाये जाते हैं :
'पाळ चढंती (उ० छडंती) थरयर काँपूँ,
पगत्या (उ० फगत्या) चढती (उ० छड़ती) धरपूँ' (राजस्थानी लोकगीत) कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत
६ ११३. प्रा० भा० आ० में इसका प्रत्यय 'त' (क्त) था, जिसका कतिपय स्थानों में 'न' वाला रूप भी मिलता है (जीर्ण, शीर्ण, भग्न आदि में) । म० भा० आ० में प्रा० भा० आ० के 'त (क्त) वाले रूपों का विकास प्रायः 'इअ (शौरसेनी में 'इद) पाया जाता है :- दुहिअ< दुग्ध, हणिअ< हत, जणिद (शौर०) < जनित, इच्छिद (शौर०) < इच्छित । (दे० पिशेल $ ५६५) प्रा० भा० आ० 'न' वाले निष्ठा रूपों का विकास कई प्रकार से हुआ है :
खण्ण, खत्त (अर्धमा०, जैनमहा०), उक्खाअ, उक्खाअअ, समुक्खअ, (दे० पिशेल $ ५६६) । म० भ० आ० में 'न' > ण कई स्थानों में पाया जाने लगा है :- दिण्ण (महा०), दिन्न (जैनमहा०) <*दिन (=दत्त) । 'क्त' वाले निष्ठा रूपों (जैसे रिक्त, मुक्त रूपों) का विकास दुहरा पाया जाता है; रित्त, मुत्त-मुक्क । पिशेल ने 'मुक्क' की व्युत्पत्ति 'मुक्त' से न मानकर मुक् + न से मानी है ।
अपभ्रंश में प्रमुख कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत चिह्न 'इय ('इअ), "इउ ही हैं, यद्यपि प्राकृत के उक्त अन्य रूप भी पाये जाते हैं। पूरबी अपभ्रंश में कतिपय °ल वाले निष्ठा रूप भी मिलते हैं, जिनका संबंध सं० *ल से जोड़ा जाता है। डा० टगारे ने, उद्योतन की कुवलयमाला में भी, जो पश्चिमी अपभ्रंश का ग्रन्थ है, कुछ °ल रूप संकेतित किये हैं :- दिण्णले, (/दा-), गहिल्ले (Vग्रह) । पूर्वी अपभ्रंश की रचनाओं के °ल रूपों के उदाहरण ये हैं :- रुंधेला, आइला, गेला । (दे० टगारे ६ १४८, पृ० ३१७) संदेशरासक में इय, "इयउ वाले रूपों के अतिरिक्त ई (इय का समाहृत रूप) वाले स्त्रीलिंग रूप भी मिलते हैं, साथ ही कतिपय उदाहरण संस्कृत निष्ठा रूपों के ध्वनिनियमों के अनुसार परिवर्तित रूपों के भी मिलते हैं ।
प्रा० पैं० में निम्न निष्ठा प्रत्यय मिलते हैं :(१) "इओ; यह शुद्ध प्राकृत रूप है, जो पुलिंग रूपों में मिलता है :
पआसिओ < प्रकाशितः (१.१४९), कहिओ (१.१६), झंपिओ (१.१५५) < झम्पितः, कंपिओ < कम्पितः (१.१६६).
(२) इअ वाले रूप; इअ < इत (त) :
थप्पिअ (१.१२८), अप्पिअ (१.१२८), झंपिअ (१.९२), टरपरिअ (१.१२), चलिअ (१.९२), कंपिअ (१.१९८), भासिअ (१.१०४), हणिअ (१.१७०), वंदिअ (१.१७०), कहिअ (१.१७०), वुल्लिअ (१.१३५), पल्लिअ (१.१३५), फुलिअ (१.१६३), दलिअ (१.१८५), चलिअ (१.१८५), मोलिअ (१.१८५), लुक्किअ (१.१९०), थक्किअ (१.१९०).
'इआ वाले रूप जिनमें कुछ ब० व० रूप है, अन्य छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्धीकृत रूप हैं :- जिण्णिआ (१.७७), झंपिआ (२.१११), मोलिआ (२.१११), छोड़िआ (२.१६१), जाणीआ (=जाणिअ) (१.११२), माणीआ (=माणिअ) (२.११२), देक्खीआ (=देखिअ) (२.११३), पेक्खीआ (=पक्खिअ) (२.११३).
(३) 'इआ (स्त्रीलिंग रूप) :रहिआ (१.८५), जाआ (१.१५६) < जाता, कंपिआ (कंपिता) (२.१६९), मंडिआ (२.१६९) < मंडिता ।
१. Sandesarasaka : (Study) $ 67
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