Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् काव्यों में जिन्हें 'जूनी गुजराती' या 'जूनी राजस्थानी' की रचनाएँ कहा जा सकता है, स्पष्ट रूप में उपलब्ध होती है । इसका स्पष्ट प्रमाण तो यह है कि पिछले दिनों के गुजराती छन्दःशास्त्र के ग्रंथों तक में इन छन्दों की ताललय का संकेत मिलता है । आदिकालीन हिन्दी काव्यों में ये छन्द 'प्राकृतपैंगलम्' और 'कीतिलता' जैसी प्राचीन कृतियों में प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु ऐसा जान पड़ता है, धीरे-धीरे ये छन्द अपनी गेयता खोते जा रहे थे और पंडित कवियों के हाथों इनका ताललयात्मक रूप समाप्त होकर शुद्ध मात्रिक रूप होता जा रहा था । मध्ययुगीन हिन्दी कविता तक आते-आते ये अपभ्रंश ताल छन्द पूरी तरह शुद्ध मात्रिक छन्द बन गये थे, किन्तु फिर भी कुछ छन्दों में इनके ऐसे अवशेष बचे रह गये थे, जिनसे इनके प्राचीन तालछन्दत्व का संकेत मिल जाता है। उदाहरण के लिए 'चोपैया', 'लीलावती', 'मरहट्ठा', 'त्रिभंगी' जैसे छन्दों में निबद्ध 'आभ्यन्तर तुक', जो मुलत: तालयति का संकेत करती थी, तुलसी के मानस के चौपैया छन्दों में; केशव, भिखारीदास और दूसरे रीतिकालीन कवियों के उक्त छन्दों में उपलब्ध होती है । इस विशेषता का विस्तृत संकेत हम इन छन्दों के विवरण के अवसर पर आगे करेंगे ।
अपभ्रंश कवियों ने संस्कृत के वर्णिक वृत्तों का प्रयोग प्रायः कम किया है, यद्यपि स्वयंभूछन्दस् तथा अन्य दूसरे अपभ्रंश छन्दःशास्त्रीय ग्रंथों में संस्कृत वर्णिक वृत्तों का लक्षण निबद्ध है। अपभ्रंश कवि प्रायः उन्हीं अक्षरवृत्तों या वर्णवृत्तों का प्रयोग करते देखे जाते हैं जो किसी न किसी 'तालगण' में गाए जा सकें, उदाहरण के लिए पुष्पदन्त के 'जसहरचरिउ' में 'वितान' (भ, स, ल, ग), 'पंक्तिका' (र, य, ज, ग), 'भुजंगप्रयात' (चार यगण), 'चित्रा' (र, ज, र, ज, र, ग), 'स्रग्विणी' (चार रगण), विभावरी (ज, र, ज, र) जैसे वर्णवृत्तों का प्रयोग हुआ है, जिन्हें तालछन्दों के रूप में मजे से गाया जा सकता है । 'वितान' छन्द में पहली और ७ वी मात्रा को एक साथ गुरु अक्षर के द्वारा न निबद्ध कर अलग-अलग रक्खा जाता है। इसी प्रकार 'चित्रा' और 'विभावरी' भी षण्मात्रिक ताल में गाये जाते रहे हैं। 'पंक्तिका' छन्द आठ मात्रा की ताल में और 'स्रग्विणी' तथा 'भुजंगप्रयात' पांच मात्रा की ताल में गेय छन्द हैं। 'भुजंगप्रयात' अपभ्रंश और 'अवहट्ट' कवियों का प्रसिद्ध छन्द है, जिसका युद्ध वर्णन में सफल प्रयोग देखा जाता है। इन छन्दों के अतिरिक्त और भी वर्णिक छन्द ऐसे मिलते हैं, जिन्हें अपभ्रंश कवियों ने प्रयुक्त किया है और जो तालच्छन्दों के रूप में गाये जा सकते हैं । 'सन्देशरासक' में 'मालिनी', 'नन्दिनी' और 'भ्रमरावली' का प्रयोग हुआ है। इनमें मालिनी छन्द ८ मात्रा के तालखण्डों में मजे से गाया जा सकता है। इस छन्द में आरम्भ में आठ मात्रा के बाद १४ मात्रा के दो टुकड़ों (७–७ मात्रा के एकएक टुकड़े को) को एक-एक अधिक मात्रा का प्रस्तार देकर गाये जाने की प्रथा रही होगी । इसे स्पष्ट करने के लिए हम सन्देशरासक के निम्न छन्द को लेकर उसके तालखण्डों का विभाजन संकेतित कर सकते हैं ।
'जइ विरहविरा- / मे णठ्ठसो-5 । हो मुणंतीs, सुहय तइय रा- / ओ उग्गिलं-5 । तोसणेहोऽ । भरवि नवयरं- । गे इक्कु कुं-5 | भो धरतीs,
हियउ तह पडि-। ल्लो बोलियं-5 / तो विरत्तोऽ ॥ (संदेशरासक २.१००) द्वितीय और तृतीय तालखण्डों की अंतिम ध्वनि को एक मात्रा का अधिक प्रस्तार देकर गाया जायेगा । संस्कृत वैयाकरण की शब्दावली में इन खण्डों के अंतिम गुर्वक्षर का प्लुप्त उच्चारण किया जायगा । इसी तरह संदेशरासक के 'नंदिनी' (४ सगण, संस्कृत तथा बाद के छन्दःशास्त्रियों का 'तोटक') और 'भ्रमरावलि' (५ सगण) को एक एक सगण (IIS, चार मात्रा) के तालखण्डों में बाँट कर मजे से चतुर्मात्रिक ताल में गाया जा सकता है। पुरानी हिंदी कविता में भी प्रायः वे ही वर्णिक छंद अधिक प्रयुक्त हुए हैं, जो मात्रिक तालच्छंदो की प्रकृति के साथ मजे से खप सकते हैं। हिंदी छन्दःपरंपरा
१४५. प्राकृतपैंगलम् के मात्रिक छंदों का अनुशीलन करते हुए हम इस बात का बार-बार संकेत करेंगे कि प्राकृतपैंगलम् वह पहला ग्रन्थ है, जिसमें हिंदी छन्दःपरंपरा का उदय सर्वप्रथम दिखाई पड़ता है। जैसा कि स्पष्ट है, हिंदी भाषा और साहित्य का उदय, अपने पूर्व की संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की भाषासंबंधी और साहित्यिक विरासत को लेकर हुआ है। यह बात साहित्य (या काव्य) के बाह्य परिवेश 'छंद' पर भी पूरी तरह लागू होती है। हिंदी की छंद:परम्परा, शास्त्रीय संस्कृत की वर्णिक वृत्तपरम्परा, प्राकृत की मात्रिक जातिच्छंदों की परम्परा और अपभ्रंश के लोकगीतात्मक
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