Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 581
________________ ५५६ प्राकृतपैंगलम् को अन्य से स्वतन्त्र रखना आवश्यक है, अतः एकगण के अंत तथा द्वितीयगण के आरम्भ में ऐसे द्विमात्रिक अक्षर (गुरु) का प्रयोग नहीं होना चाहिए, जो विभक्त होकर दोनों गणों का संपादन करे। अतः प्रत्येक गण का आरंभ नवीन अक्षर से होना अत्यावश्यक है। कविदर्पण में वर्णित इन ११ षोडशमात्रिक चतुष्पदियों में से छ: निम्न हैं : (१) मात्रासमक (प्रत्येक चरण १६ (४४४) मात्रा, नवम मात्रा में लध्वक्षर तथा अंत में गुरु) (१) विश्लोक (१६ (४४४) मात्रा; पंचम तथा अष्टम मात्रा लध्वक्षरयुक्त) (३) चित्रा (१६ (४४४) मात्रा; पंचम, अष्टम तथा नवम मात्रा लघ्वक्षरयुक्त) (४) वनवासिका (१६ (४४४) मात्रा, नवम तथा द्वादश मात्रा लघ्वक्षरयुक्त) (५) उपचित्रा (१६ (४४४) मात्रा, नवम तथा दशम मात्रा के लिए गुरु अक्षर) (६) पादाकुलक (१६ (४४४) मात्रा; उपर्युक्त किन्हीं भी छंद की चार पंक्तियों से युक्त) इन सभी छंदों में एक नियम यह है कि चरण के आदि में 'जगण' (151) - मध्यगुरु चतुर्मात्रिक गण - का प्रयोग न किया जाय । डा० वेलणकरने इन छहों छन्दों को शुद्ध मात्रावृत्त इसलिये नहीं माना है कि इनमें विशेष अक्षरों की मात्रा का नियम पाया जाता है। शेष पाँच चतुष्पदियाँ निम्न हैं (७) मुक्तावलिका (१६ मात्रा (४४४)) (८) वदन (१६ मात्रा (६+४४२+२)) (९) मडिला (१६ मात्रा (४x४), चारों चरणों में तुक) (१०) अडिला (१६ मात्रा (४४४), चारों चरणों में तुक) (११) पज्झटिका (१६ मात्रा (४x४), प्रथम तथा तृतीय चतुर्मात्रिक गण 'जगण' न हों)३ । पज्झटिका मूलतः शुद्ध मात्रिक वृत्त है, किन्तु इसमें भी उपर्युक्त वृत्तों की तरह 'जगण' का निषेध कर दिया गया है, जो संगीत के उपादानार्थ किया गया है। सममात्रिक चतुष्पदी-प्रकरण में अन्य १० वृत्तों का भी उल्लेख मिलता है : खण्ड (१३ मात्रा, ४+४+५), मदनावतार (२० मात्रा, ५x४), गलितक (२१ मात्रा, ५४२+४४२+३), खंजक (२३ मात्रा, ३४२+४४३+३+२), रासक (२३ मात्रा, ४४५+१+२), चित्रलेखा (२६ मात्रा, ६+४४४+२+२), द्विपदी (२८ मात्रा, ६+४४५+२), रासावलय (२१ मात्रा, ६+४+६+५), वस्तुक या वस्तुवदनक (२४ मात्रा, ६+४४३+६), उत्साह (२४ मात्रा, ४x६)। इनमें से प्रा० पैं० में खंजक, द्विपदी तथा वस्तुक ये तीन छंद ही मिलते हैं। अंतिम छंद (वस्तुक) को वहाँ 'रोला' कहा गया है, तथा यही नाम मध्यकालीन हिंदी काव्य में प्रयुक्त होता है। पञ्चपदी प्रकरण में केवल मात्रा छंद का उल्लेख है। कविदर्पण में हेमचंद्र के छन्दोनुशासन की भाँति मात्रा के अनेक प्रकार नहीं मिलते । कविदर्पण के संस्कृत वृत्तिकार ने अवश्य इन भेदों का उल्लेख करते हुए हेमचन्द्र तथा छन्द:कन्दली से उद्धरण दिये है। मात्रा का स्वरूप यों हैं : प्रथम, तृतीय तथा पंचम चरण. ५४२+४+१; द्वितीयचतुर्थचरण ४४२+३; तृतीय-पंचम चरणों में तुक'. १. टा चउरो जो ण मुहे गुरु च्चियं तिल्लओ लहू नवमो । मत्तासमयं, पंचमअट्ठमलहुणो उ विसिलोओ ।। चित्ता नवमो विहु, वाणवासिया नवमबारसा लहुणो । नवमगुरू उवचित्ता, पायाउलयं इमाण पाएहिं ॥ (कविद्० २.१९-२०) २. Annals. B.O.R.I. (1934-35) p. 49 ३. चउचा टगणो मुत्तावलिका, पो(षो)टदुगका पुणो वयणं । तं चउसु अंतजमिय मडिला, पाएसु दुसु दुसु अ अडिला ॥ पज्झडिया टचउक्कं चरमे टे मज्झका, न विसमे जो ।। (कविद० २-२१-२२) ४. H. D. Velankar : Apabhramsa Metres, Para 18. ५. कविदर्पण २.२७-२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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