Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६१५ (१) द्विपदी २८ (६, ४ x ५, ७) हेम० (४.५६), छन्दःकोश (३५), प्रा० पैं० (१.१५२). (२) रचिता प्रथम २८ (४, ५, ५, स, स, ज, 5) वृत्तजातिसमुच्चय (३.२५). (३) रचिता द्वितीय (रतिका) २८ हेम० (४.५७). (४) कोढुम्भक २८ (भ (या 55), र, ५, स, स, ज, 5) वृत्तजाति० (४.५३). (५) दीपक २८ (५, ५, ४, ५, ४, ५) हेम० (४.७३). (६) विद्रुम (रासक) २८ (म, र, 1, 5, ५, ५, स) हेम० (५.१२).
इन छन्दों में पादांत गुरु की दृष्टि से प्रथम रचिता, कोढुम्भक और विद्रुम तीनों छंद हरिगीता से मिलते हैं, किन्तु पिछले दो छन्दों में क्रमश: रगण और मगण की व्यवस्था के कारण पाँचवीं-छठी मात्रा एक साथ गुर्वक्षर के द्वारा निबद्ध की जायेंगी, जब कि हरिगीता में पाँचवी मात्रा नियमत: लघु अक्षर द्वारा निबद्ध की जाती है। फिर भी विद्रुम (रासक)
और 'हरिगीता' का मूलस्रोत एक ही जान पड़ता है, जो रासनृत्य के समय गाये जाने वाली २८ मात्रा की चतुष्पदी के ही भिन्न भिन्न रूप हैं । हेमचंद्र के विद्रुम (रासक) का निम्न उदाहरण तुलना के लिए लिया जा सकता है।
भ्रूवल्लि चावयं मणोहवस्स ससितुल्लं वयणं, अंगं चामीअरप्पहं अहिणवकमलदलं नयणं । तीए हीरावलि व दंतपंति विद्दुमं अहरं, पेच्छंताणं पुणोपुणो काण न हवइ मणो विहुरं ॥
(छन्दोनुशासन ५.११) (उस नायिका की भ्रूवल्लि, मनोभव का चाप, वदन शशितुल्य, अंग चामीकरप्रभ, नयन अभिनवकमलदल, दंतपंक्ति हीरावली के समान और अधर विद्रुम (हैं), (उसे) देखने वाले किन लोगों का मन पुनः पुनः विधुर (विह्वल) नहीं होता।)
यदि वाणीभूषण आदि ग्रंथों के लक्षणों तक ही सीमित रह कर उदाहरणों की ४ लध्वक्षरों वाली परिपाटी का पालन न किया जाय, तो यह छन्द स्पष्ट रूप से 'हरिगीता' हो सकता है।
हरिगीता मध्ययुगीन हिंदी कविता का बड़ा प्रिय छन्द रहा है। इसका सबसे पहले संकेत करने वाले मध्ययुगीन छन्दःशास्त्री जैन कवि पंडित राजमल्ल हैं, जो अकबर के समसामयिक थे और जिनकी अप्रकाशित रचना 'छन्दःशास्त्र' संभवतः केशव की 'रामचंद्रिका' और 'छन्दमाला' दोनों से २५-३० वर्ष पुरानी जरूर है । कवि राजमल्ल के लक्षण में केवल नई बात यह मिलती है कि वे इस छन्द में १०,६, १२ मात्रा पर यति का उल्लेख करते हैं; पाँचवी, बारहवीं, उनीसवीं और छब्बीसवीं मात्रा के लघु होने का कोई संकेत वे भी नहीं देते ।२।।
केशव की 'छंदमाला',३ श्रीधर कवि के 'छंदविनोद', देव के 'काव्य रसायन"५, 'छंदार्णव', गदाधर की 'छंदोमंजरी'७, प्रायः सभी मध्ययुगीन छंदोग्रंथों में इस छंद का उल्लेख है। भिखारीदास ने इसे केवल 'गीतिका' कहा है। श्रीधर कवि यतिविधान ९, ५, ९, ५ पर मानते हैं (विसराम नव पर पाँच नव पर पाँच पुनि सुभ मानिये), और इस तरह १६, १२ या १०, ६, १२ वाली यति को अस्वीकार करते हैं, जो पुरानी पद्धति से स्पष्ट है। गुजराती के छंदोग्रंथ 'दलपतपिंगल' में इसकी यतिव्यवस्था नहीं मिलती, वे इसकी ताल का संकेत अवश्य करते हैं, कि इसके प्रत्येक चरण में ८ ताल होती है, पहली ताल तीसरी मात्रा से शुरु होती है। फिर क्रमशः तीन-चार, तीन-चार मात्रा के बाद बाकी ताले पड़ती है। श्रीरामनारायण पाठक इसकी तालव्यवस्था का संकेत यह भी बताते हैं कि यतिविधान १६, १२ अथवा १४, १४ दोनों प्रकार का पाया जाता है :१. प्रल्गापासा विद्रुमः । मगणरगणौ लघुगुरू पगणद्वयं सगणश्च विद्रुमः । - छन्दोनुशासन ५.११ २. हरिगीय छन्द फणिंद भासिय वीय, वइहि (? पइहि) छक्कलो, गणपढम तीय तुरिय (? तुरीय) पंचम पंच मत्त सुयद्दलो
(? सुभद्दलो) दह छक्क वारस विरह (? विरइ) छइ पय पयँह अंतहि गुरुकरे, सिर भारमल्ल कृपाल कुल सिरिमाल (? सिरीमाल) वंस समुद्धरे ॥ (१२०) श्री कामता प्रसाद जैन के 'हिन्दी जैन साहित्य' के परिशिष्ट में इस ग्रंथ के अंश काफी भ्रष्ट छपे हैं, मैंने कोष्ठक में अनुमानित
पाठ देकर शुद्ध करने की चेष्टा की है। ३. छंदमाला २.४५ ४. छंदविनोद २.३५ ५. काव्यरसायन ११.३९ ६. छंदार्णव ५.२१९ ७. छंदोमंजरी पृ० ९७ ८. दलपतपिंगल २.१०५
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