Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
'पहली ताल त्रीजी मात्रा उपर आवे, अने पछी त्रण अने चार एम एक पछी एक उमेरतां जे मात्राओ आवे ते उपर ताल पड़े, एटले के ३, ६, १०, १३, १७, २०, २४ अने २७ ए मात्राओ उपर ताल पड़े, अंते गुरु आवे, सोळ के चौद मात्राए यति आवे
मराठी में यह छंद 'गीतिका' कहलाता है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में कई जगह बीच-बीच में इस छंद का और त्रिंशन्मात्रिक चौपैया का प्रयोग किया है। किंतु गोस्वामी जी के छंद में चरण के आदि में दो लघु नियत रूप से नहीं मिलते, अंत में 15 की व्यवस्था जरूर मिलती है। यतिव्यवस्था एक ही छंद के विविध चरणों में कहीं १६, १२ और कहीं १४, १४ मिलती है । द्वितीय गण (षट्कल) की व्यवस्था त्रुटित मिलती है और १२ वीं मात्रा एक स्थान पर निम्न छंद में लघु अक्षर के द्वारा निबद्ध न होकर ग्यारहवीं मात्रा के साथ मिलाकर गुरु अक्षर के द्वारा निबद्ध की गई है।
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जोगी अकंटक भए पति गति // सुनत रति मुरुछित भई, ( १६, १२) रोदति वदति बहु भाँति करुना // करति संकर पहिं गई । (१६, १२)
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि // जोरि करि सन्मुख रही, ( १६, १२) प्रभु आसुतोष कृपाल सिव // अबला निरखि बोले सही । (१४, १४)
केशवदास की 'रामचंद्रिका' में २८ मात्रा प्रस्तार के दो छंद मिलते हैं, एक को 'हरिगीतिका' कहा गया है, दूसरे
को 'गीतिका' । 'हरिगीता' में आरंभ में दो लघु और अंत में रगण होना चाहिए, शेष इक्कीस मात्रा कैसी भी हो सकती है। 'गीतिका' में 'स, ज, ज, भ, रस, ल, गा' होता है। यह 'गीतिका' छंद 'गीता' के नाम से प्राकृतपैंगलम् के वर्णवृत्त प्रकरण में भी मिलता है । इसकी उट्टवणिका ॥S, ISI, ISI, SII, SIS, SII, 15 है । इसमें ८ गुरु तथा १२ लघु होते हैं और २० वर्ण एवं २८ मात्रायें होती हैं और १६, १२ पर प्रायः यति पाई जाती है। स्पष्ट ही यह वर्णिक 'गीतिका' (गीति) छंद 'हरिगीतिका' का ही परवर्ती रूप है। केशव के दोनों तरह के उदाहरण निम्न हैं । ( मात्रिक हरिगीतिका)
सुभ द्रोन - गिरिगन - शिखर - ऊपर उदित ओषधि सी भनौ, बहु बायु बस बारिद बहोरहि अरुझि दामिनि दुति मनौ । अति किध रुचिर प्रताप पावक प्रगट सुरपुर को चली, यह किधौं सरित सुदेस मेरी करी दिवि खेलात भली ॥४
(वर्णिक गीतिका)
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कोठ आजु राजसमाज में बल संभु को धनु कर्षिहै, पुनि श्रौन के परिमान तानि सो चितं में अति हर्षिहै ।
वह राज होइ कि रंक 'केसवदास' सो सुख पाइहै, नृपकन्यका यह तासु के उपर पुष्पमालहि नाइहै ॥
इस छन्द में 'कोड' के 'को' को आदि में 'सगण' व्यवस्था होने के कारण मैंने ह्रस्वोच्चारित माना है। द्वितीय चरण के 'श्रीन' का पाठ लालाजी के संस्करण में 'श्रीण' है, आचार्य मिश्र के संस्करण में 'श्रवन' मिश्र जी के पाठ को लेने पर इस पंक्ति में २१ अक्षर हो जाते हैं और पद के आदि में सगण व्यवस्था की पाबन्दी नहीं पाई जाती। इसीलिए मैने 'श्रीन' पाठ लिया है ।
१. बृहत् पिंगल पृ० ३२८
२. छंदोरचना पृ० ५३
३. जहि आइ हत्थ णरेंद विण्ण वि पाअ पंचम जोहलो, जहि ठाइ छहि हत्थ दीसइ सद्द अंतहि णेउरो ।
सइ छंद गीअउ मुद्धि पीअउ सव्वलोअहि जाणिओ, कइसिडिसिड दिट्ठ दिद्रुठ पिंगलेण बखाणिओ ॥ प्रा० ० २.१९६ ४. रामचंद्रिका १.३९
५. वही ३.३१
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