Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 639
________________ ६१४ प्राकृतपैंगलम् इसका यति-विधान इसी ढंग का है। वे निम्न उदाहरण देते हैं : माधव परम वेदनिधि देवक असुर हरंत तू, पावन धर्मसेतु कर पूरण सज्जन महन्त तू । दानव हरण राम नृप सन्तन काज करन्त तू, देखहु कस न नीति कर मोहक मान धरन्त तू ।। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि गदाधर भी इसमें २० वर्णों (५ गुरु, १५ लघु) की व्यवस्था को जरूरी नहीं मानते। हरिगीता १८५. हरिगीता २८ मात्रा का सम चतुष्पदी छंद है। इसके प्रथम, तृतीय, चतुर्थ और पंचम मात्रिक गण किसी भी प्रकार के पंचमात्रिक हो सकते हैं, किंतु द्वितीय गण सदा षण्मात्रिक होना चाहिए और प्रतिचरण के अंत में 'गुरु' (5) होना चाहिए । इस प्रकार 'हरिगीता' की गणव्यवस्था ‘प छ प प प गुरु' है। इस छंद की खास विशेषता यह है कि इसमें पाँचवीं, बारहवीं, उन्नीसवीं, और छब्बीसवीं मात्रा नियत रूप से लघ्वक्षर के द्वारा निबद्ध की जाती है। अन्य स्थानों पर इच्छानुसार कहीं भी लघु, गुरु की व्यवस्था की जा सकती है। इस बंधन से यह स्पष्ट है कि यह छंद ऐसी ताल में गाया जाता है, जिसमें ७-७ मात्रा के तालखंड होते हैं । हरिगीतिका को प्रायः सप्तमात्रिक ताल 'दीपचंदी' में गाया जाता है । इस छंद के गाने में पहली ताल तीसरी मात्रा पर और बाद की तीन ताल क्रमशः १०वी, १७ वीं और २४ वी मात्रा पर पड़ती हैं । ताल वाली मात्रा से तीसरी मात्रा सभी तालखंडों में लघु निबद्ध की जाती है; यह मात्रान्तर इतना नियमित है कि इससे छंद की लय में एक विशिष्ट अनुगुंजन उत्पन्न हो जाता है। प्राकृतपैंगलम् में इसकी मात्राव्यवस्था यों भी दी है :- १०, ४, २, १०, २; किंतु वहाँ उक्त चार मात्राओं में लघ्वक्षर निबद्ध करने का कोई संकेत लक्षणपद्य में नहीं मिलता । साथ ही प्राकृतपैंगलम् में इस छंद के यति-विधान का भी कोई उल्लेख नहीं है, जब कि अन्य ग्रंथ इस छंद में १६, १२, पर यति मानते हैं । प्राकृतपैंगलम् के उदाहरण में दोनों बातों की पाबंदी पाई जाती है : गअ गअहि ढुक्किअ तरणि लुक्किअ तुरग तुरअहि जुज्झिआ रह रहहि मीलिअ धरणि पीडिअ अप्प पर णहि बुज्झिआ । बल मिलिअ आइअ पत्ति धाइउ कंप गिरिवरसीहरा, उच्छलइ साअर दीण काअर वइर वड्डिअ दीहरा ॥ (प्रा० पैं० १.१९२) प्राकृतपैंगलम् के कुछ ही दिनों बाद रत्नशेखरसूरि ने इस छन्द का नाम 'हरिगीता न देकर केवल 'गीता' दिया है। छन्दःकोश का लक्षण काफी मोटा मोटा है, वहाँ केवल इसके प्रतिचरण २८ मात्रा, समग्र छन्द में ११२ मात्रा और पादांत में यमक (तुक) के विधान का संकेत है। रत्नशेखर वाला लक्षण उनका अपना नहीं बल्कि 'गोसल' नामक किसी पुराने छंदःशास्त्री का है, जिनका कोई ग्रंथ हमें उपलब्ध नहीं है। यह लक्षण दो बातों का संकेत करता है, प्रथम इस छंद को 'गीता' और 'हरिगीता' दोनों नामों से पुकारा जाता था; दूसरे यह प्राकृतगलम् से बहुत पुराना है, और उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसका सबसे पहले उल्लेख 'गोसल' ने किया था । वाणीभूषण के अनुसार भी इसकी गणव्यवस्था ५, ६, ५, ५, ५, 5 ही है। वाणीभूषण में भी ४ लघ्वक्षरों और यतिस्थान का संकेत नहीं किया गया है, पर वहाँ उदाहरण में दोनों बातों की पूरी पाबंदी मिलती है। प्राचीन अपभ्रंश छन्दःशास्त्रियों के यहाँ 'गीता' या 'हरिगीता' छन्द नहीं मिलता, पर २८ मात्रा-प्रस्तार के निम्न छन्द मिलते हैं : १. प्रतिपद पच्चिस कै कला कला (१६) अंक (९) विश्राम ।। छन्द सुगगनानंग कहि वरनत यहि अभिराम ॥ - छंदोमंजरी पृ० ९३ २. गण चारि पंचक्कल ठविज्जसु बीअ ठामहि छक्कलो, पअ पअह अंतहिं गुरु करिज्जसु वण्णणेण सुसव्वलो।। दह चारि दुक्कइ दह दु माणहु मत्त ठाइस पाअओ, हरिगीअ छंद पसिद्ध जाणहु पिंगलेण बखाणिओ ॥ - प्रा० पैं० १.११९ ३. अडवीस मत्त निरुत्त जहि पयबंध सुन्दर दीसए, सउ बारहुत्तर मत्त चहुपई मेलु जत्थ गवीसए । ___ जो अत्थलीणउ जमगसुद्धउ गोसलेण पयासिओ, छंदु गीयउ मुणहु गुणियण विमलमइहि जु भासियो ।। - छन्दःकोश १८ । ४. वाणीभूषण १.११५ ५. वही १.११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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